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________________ प्रस्थान १०१ तुच्छ एवं नगण्य हैं। यथार्थ के जगत् में त्याग के आगे भोग की गणना ही क्या! जहाँ त्याग आत्म-पराक्रम या शक्तिमत्ता का संस्फोट है, परम सशक्त अभिव्यञ्जना है, वहाँ भोग जीवन के दौर्बल्य और शक्तिशून्यता का सूचक है। अतएव जैसा ऊपर वर्णित हुआ है, भोग त्याग के आगे समक्ष झुकने जाता है। इसलिए कहा जाता है कि जनजन यह जान सके कि जिस भौतिक विभूति तथा भोगासक्ति में वे मदोन्मत्त रहते हैं, वह सब मिथ्या है, वह वैभव भी, वह मदोन्माद भी। सम्भव है, ऐसा ही कुछ उच्च एवं आदर्श भाव इस परम्परा के साथ जुड़ा हो। ५०-तए णं से कूणिए राया हारोत्थयसुकयरइयवच्छे कुंडलउज्जोवियाणणे मउडदित्तसिरए णरसीहे णरवई णरिदे णरवसहे मणुयरायवसभकप्पे अब्भहियं रायतेयलच्छीए दिप्पमाणे, हथिक्खंधवरगए, सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं, सेयवरचामराहिं उद्धव्वमाणीहिं उद्धव्वमाणीहिं वेसमणे चेव णरवई अमरवइसण्णिभाए इड्डीए पहियकित्ती हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ५०– तब नरसिंह मनुष्यों में सिंहसदृश शौर्यशाली, नरपति—मनुष्यों के स्वामी–परिपालक, नरेन्द्रमनुष्यों के इन्द्र-परम ऐश्वर्यशाली अधिपति, नरवृषभ मनुष्यों में वृषभ के समान स्वीकृत कार्य-भार के निर्वाहक, मनुजराजवृषभ नरपतियों में वृषभसदृश परम धीर एवं सहिष्णु चक्रवर्ती तुल्य—उत्तर भारत के आधे भाग को साधने में स्वायत्त करने में संप्रवृत्त, भंभसारपुत्र राजा कूणिक ने जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ जाने का विचार किया, प्रस्थान किया। अश्व, हस्ती, रथ एवं पैदल इस प्रकार चतुरंगिणी सेना उसके पीछे-पीछे चल रही थी। राजा का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित तथा प्रीतिकर था। उसका मुख कुण्डलों से उद्योतित-द्युतिमय था। मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था। राजोचित तेजस्वितारूप लक्ष्मी से वह अत्यन्त दीप्तिमय था। वह उत्तम हाथी पर आरूढ हुआ। कोरंट के पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था। श्रेष्ठ श्वेत चंवर डुलाये जा रहे थे। वैश्रमण यक्षराज कुबेर, नरपति–चक्रवर्ती अमरपति–देवराज इन्द्र के तुल्य उसकी समृद्धि सुप्रशस्त थी, जिससे उसकी कीर्ति विश्रुत थी। ___५१- तए णं तस्स कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स पुरओ महं आसा, आसवरा, उभओ पासिं णागा, णागवरा, पिट्ठ) रहसंगेल्लि। ५१- भंभसार के पुत्र राजा कूणिक के आगे बड़े-बड़े घोड़े और घुड़सवार थे। दोनों ओर हाथी तथा हाथियों पर सवार पुरुष–महावत थे, पीछे रथ-समुदाय था। ५२- तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते अब्भुग्गयभिंगारे, पग्गहियतालयंटे, ऊसवियसेयच्छत्ते, पवीइयबालवीयणीए, सव्विड्डीए, सव्वजुतीए सव्वबलेणं, सव्वसमुदएणं, सव्वादरेणं, सव्वविभूईए, सव्वविभूसाए, सव्वसंभमेणं, सव्वपुष्फगंधमल्लालंकारेणं, सव्वतुडियसहसण्णिणाएणं, महया इड्डीए, महया जुईए, महया बलेणं, महया समुदएणं, महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं संख-पणव-पडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरव-मुअंग-दुंदुहि-णिग्घोसणाइयरवेणं चंपाए णयरीए मझमझेणं णिग्गच्छइ।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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