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________________ ४६ औपपातिकसूत्र माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-दूय-संधिवालसद्धिं संपरिवुडे धवलमहामेहणिग्गए इव गहगणदिप्पंत-रिक्ख-तारागणाण मज्झे ससिव्व पिअदंसणे णरवई जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवगाच्छइ, उवागच्छित्ता अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई णरवई दुरूढे। ४८- भंभसार के पुत्र राजा कूणिक ने सेनानायक से यह सुना। वह प्रसन्न एवं परितुष्ट हुआ। जहाँ व्यायामशाला थी, वहाँ आया। आकर व्यायामशाला में प्रवेश किया। प्रवेश कर अनेक प्रकार से व्यायाम किया। अंगों को खींचना, उछलना-कूदना, अंगों को मोड़ना, कुश्ती लड़ना, व्यायाम के उपकरण मुद्गर आदि घुमानाइत्यादि क्रियाओं द्वारा अपने को श्रान्त, परिश्रान्त किया थकाया, विशेष रूप से थकाया। फिर प्रीणनीय रस, रक्त आदि धातुओं में समता-निष्पादक, दर्पणीय बलवर्धक, मदनीय कामोद्दीपक, बृंहणीय—मांसवर्धक, शरीर तथा सभी इन्द्रियों के लिए आहादजनक आनन्दकर या लाभप्रद शतपाक. सहस्रपाक संज्ञक सगंधित तै अभ्यंगों-उबटनों आदि द्वारा शरीर को मसलवाया। फिर तैलचर्म पर—आसन-विशेष पर—वैसे आसन पर, तैल मालिश किये हुए पुरुष को जिस पर बिठाकर संवाहन किया जाता है, देहचंपी की जाती है, स्थित होकर ऐसे पुरुषों द्वारा, जिनके हाथों और पैरों के तलुए अत्यन्त सुकुमार तथा कोमल थे, जो छेक–अवसरज्ञ, कलाविद्—बहत्तर कलाओं के ज्ञाता, दक्ष–अविलम्ब कार्यसंपादन में सक्षम, प्राप्तार्थ अपने व्यवसाय में सुशिक्षित, कुशल, मेधावी-उर्वर प्रतिभाशील, संवाहन-कला में निपुण तत्सम्बद्ध क्रिया-प्रक्रिया के मर्मज्ञ, अभ्यंगन-तैल, उबटन आदि के मर्दन, परिमर्दन तैल आदि को अंगों के भीतर तक पहुँचाने हेतु किये जाने वाले विशेष मर्दन, उद्वलन उलटे रूप में नीचे से ऊपर या उलटे रोओं से किये जाते मर्दन से जो गुण, लाभ होते हैं, उनका निष्पादन करने में समर्थ थे, हड्डियों के लिए सुखप्रद, मांस के लिए सुखप्रद, चमड़ी के लिए सुखप्रद तथा रोमों के लिए सुखप्रद—यों चार प्रकार से मालिश व देहचंपी करवाई, शरीर को दबवाया। ___इस प्रकार थकावट, व्यायामजनित परिश्रान्ति दूर कर राजा व्यायामशाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर, जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। वह (स्नानघर) मोतियों से बनी जालियों द्वारा सुन्दर लगता था अथवा सब ओर जालियाँ होने से वह बड़ा मनोरम था। उसका प्रागंण तरह-तरह की मणियों, रत्नों से खचित था। उसमें रमणीय स्नानमंडप था। उसकी भीतों पर अनेक प्रकार की मणियों तथा रत्नों को चित्रात्मक रूप में जड़ा गया था। ऐसे स्नानघर में प्रविष्ट होकर राजा वहाँ स्नान हेतु अवस्थापित चौकी पर सुखपूर्वक बैठा। शुद्ध, चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों के रस से मिश्रित, पुष्परस-मिश्रित शुभ या सुखप्रदन ज्यादा उष्ण, न ज्यादा शीतल जल से आनन्दप्रद, अतीव उत्तम स्नान-विधि द्वारा पुनः पुनः अच्छी तरह स्नान किया। स्नान के अनन्तर राजा ने दष्टिदोष नजर आदि के निवारणहेत रक्षाबन्धन आदि के रूप में अनेक. सैकडों विधि-विधान संपादित किये। तत्पश्चात् रोएँदार, सुकोमल, काषायित हरीतकी, विभीतक, आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हुए अथवा काषाय लाल या गेरुए रंग के वस्त्र से शरीर को पोंछा। सरस—समयआर्द्र, सुगन्धित गोलोचन तथा चन्दन का देह पर लेप किया। अहत —अदूषित, चूहों आदि द्वारा नहीं कुतरे हुए, निर्मल, दूष्यरत्न-उत्तम या प्रधान
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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