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________________ दर्शन-वन्दन की तैयारी ९७ वस्त्र भलीभाँति पहने। पवित्र माला धारण की। केसर आदि का विलेपन किया। मणियों से जड़े सोने के आभूषण पहने। हार—अठारह लड़ों के हार, अर्धहार–नौ लड़ों के हार तथा तीन लड़ों के हार और लम्बे, लटकते कटिसूत्र—करधनी या कंदोरे से अपने को सुशोभित किया। गले के आभरण धारण किये। अंगुलियों में अंगूठियाँ पहनीं। इस प्रकार अपने सुन्दर अंगों को सुन्दर आभूषणों से विभूषित किया। उत्तम कंकणों तथा त्रुटितों तोड़ोंभुजबंधों द्वारा भुजाओं को स्तम्भित किया—कसा । यों राजा की शोभा और अधिक बढ़ गई। मुद्रिकाओं—सोने की अंगूठियों के कारण राजा की अंगुलियाँ पीली लग रही थीं। कुंडलों से मुख उद्योतित था—चमक रहा था। मुकुट से मस्तक दीप्त—देदीप्यमान था। हारों से ढका हुआ उसका वक्षःस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था। राजा ने एक लम्बे, लटकते हुए वस्त्र को उत्तरीय (दुपट्टे) के रूप में धारण किया। सुयोग्य शिल्पियों द्वारा मणि स्वर्ण, रत्न इनके योग से सुरचित विमल-उज्वल, महार्ह बड़े लोगों द्वारा धारण करने योग्य, सुश्लिष्ट —सुन्दर जोड़ युक्त, विशिष्ट उत्कृष्ट, प्रशस्त—प्रशंसनीय आकृतियुक्त वीरवलय—विजयकंकण धारण किया। अधिक क्या कहें, इस प्रकार अलंकृतअलंकारयुक्त, विभूषित–वेषभूषा, विशिष्ट सज्जायुक्त राजा ऐसा लगता था, मानो कल्पवृक्ष हो। अपने ऊपर लगाये गये कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र, दोनों ओर डुलाये जाते चार चंवर, देखते ही लोगों द्वारा किये गये मंगलमय जय शब्द के साथ राजा स्नान-गृह से बाहर निकला। स्नानघर से बाहर निकल कर अनेक गणनायकजनसमुदाय के प्रतिनिधि, दण्डनायक–आरक्षि-अधिकारी, राजा-माण्डलिक नरपति, ईश्वर-ऐश्वर्यशाली या प्रभावशील पुरुष, तलवर राजसम्मानित विशिष्ट नागरिक, माडंबिक जागीरदार, भूस्वामी, कौटुम्बिक बड़े परिवारों के प्रमुख, इभ्य वैभवशाली, श्रेष्ठी सम्पत्ति और सुव्यवहार से प्रतिष्ठा प्राप्त सेठ, सेनापति, सार्थवाहअनेक छोटे व्यापारियों को साथ लिये देशान्तर में व्यापार-व्यवसाय करने वाले, दूत–संदेशवाहक, सन्धिपाल– राज्य के सीमान्त-प्रदेशों के अधिकारी—इन सबसे घिरा हुआ राजा धवल महामेघ श्वेत, विशाल बादल से निकले नक्षत्रों, आकाश को देदीप्यमान करते तारों के मध्यवर्ती चन्द्र के सदृश देखने में बड़ा प्रिय लगता था। वह, जहाँ बाहरी सभा-भवन था, प्रधान हाथी था, वहाँ आया। वहाँ आकर अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल, उच्च गजपति पर वह नरपति आरूढ हुआ। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में राजा कूणिक के शरीर की मालिश के प्रसंग में शतपाक तथा सहस्रपाक तेलों का उल्लेख हुआ है। वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरि ने अपनी वृत्ति में तीन प्रकार से इनकी व्याख्या की है। उनके अनुसार जो तैल विभिन्न औषधियों के साथ क्रमशः सौ बार तथा हजार बार पकाये जाते थे, वे शतपाक तथा सहस्रपाक तैल कहे जाते थे। दूसरी व्याख्या के अनुसार जो क्रमशः सौ प्रकार की तथा हजार प्रकार की औषधियों से पकाये जाते थे, वे शतपाक एवं सहस्रपाक तैल के नाम से सज्ञित होते थे। तीसरी व्याख्या के अनुसार जिनके निर्माण में क्रमशः सौ कार्षापण तथा हजार कार्षापण व्यय होते थे, वे शतपाक एवं सहस्रपाक तैल कहे जाते थे। ___कार्षापण प्राचीन भारत में प्रयुक्त एक सिक्का था। वह सोना, चाँदी तथा ताँबा—इनका पृथक्-पृथक् तीन प्रकार का होता था। स्वर्ण-कार्षापण का वजन १६ मासे, रजत-कार्षापण का वजन १६ पण (तोलविशेष) और ताम्र-कार्षापण का वजन ८० रत्ती होता था। __इस सूत्र में राजा के पारिपार्श्विक विशिष्ट पुरुषों में सबसे पहले गणनायक शब्द का प्रयोग हुआ है। तत्कालीन १. Sanskrit-English Dictionary : Sir Monier Williams, Page 276
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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