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समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति
प्राप्त उन्नत दशा फिर अवनत दशा में परिवर्तित हो जाती है, पर कर्मक्षय से प्राप्त उन्नत दशा में ऐसा नहीं होता ।
एकत्व - वितर्क - अविचार शुक्लध्यान में, पृथक्त्व-वितर्क - सविचार ध्यान की अपेक्षा अधिक एकाग्रता होती है। यह ध्यान भी पूर्व - धारक मुनि ही कर सकते हैं। इसके प्रभाव से चार घातिकर्मों का सम्पूर्ण क्षय हो जाता है और केवलज्ञान- दर्शन प्राप्त कर ध्याता — आत्मा सर्वज्ञ - सर्वदर्शी बन जाता है ।
सूक्ष्मक्रिय - अप्रतिपाति- त—जब केवली (जिन्होंने केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व प्राप्त कर लिया हो ) आयु के अन्त समय में योग-निरोध का क्रम प्रारंभ करते हैं, तब वे मात्र सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन किये होते हैं, उनके और सब योग निरुद्ध हो जाते हैं। उनमें श्वास-प्रश्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया ही अवशेष रह जाती है। वहाँ ध्यान से च्युत होने की कोई संभावना नहीं रहती । तदवस्थागत एकाग्र चिन्तन सूक्ष्मक्रिया - अप्रतिपाति शुक्लध्यान है।
यह तेरहवें गुणस्थान में होता है।
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समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति
यह ध्यान अयोगकेवली नामक चतुर्दश गुणस्थान में होता है। अयोगकेवली अन्तिम गुणस्थान है। वहाँ सभी योगों—क्रियाओं का निरोध हो जाता है, आत्मप्रदेशों में सब प्रकार का कम्पन-परिस्पन्दन बन्द हो जाता है। उसे समुच्छिन्नक्रिय - अनिवृत्ति शुक्लध्यान कहा जाता है। इसका काल अत्यल्प - पांच ह्रस्व स्वरों को मध्यम गति से उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतना ही है। यह ध्यान मोक्ष का साक्षात् कारण है।
विवेचन—–— समुच्छिन्नक्रिय - अनिवृत्ति वह स्थिति है, जब सब प्रकार के स्थूल तथा सूक्ष्म मानसिक, वाचिक तथा दैहिक व्यापारों से आत्मा सर्वथा पृथक् हो जाती है। इस ध्यान के द्वारा अवशेष चार अघाति कर्म वेदनीय, नाम, गोत्र तथा आयु भी नष्ट हो जाते हैं। फलतः आत्मा सर्वथा निर्मल, शान्त, निरामय, निष्क्रिय, निर्विकल्प होकर सम्पूर्ण आनन्दमय मोक्ष-पद को स्वायत्त कर लेता है।
वस्तुतः आत्मा की यह वह दशा है, जिसे चरम लक्ष्य के रूप में उद्दिष्ट कर साधक साधना में संलग्न रहता है। यह आत्मप्रकर्ष की वह अन्तिम मंजिल है, जिसे अधिगत करने का साधक सदैव प्रयत्न करता है। यह मुक्तावस्था है, सिद्धावस्था है, जब साधक के समस्त योग — प्रवृत्तिक्रम सम्पूर्णतः निरुद्ध हो जाते हैं, कर्मक्षीण हो जाते हैं, वह शैलेशीदशा —— मेरुवत् सर्वथा अप्रकम्प, अविचल स्थिति प्राप्त कर लेता है । फलतः वह सिद्ध के रूप में सर्वोच्च लोकाग्र भाग में संस्थित हो जाता है।'
१.
शुक्लध्यान के चार लक्षण बतलाये गये हैं। वे इस प्रकार हैं
१. विवेक देह से आत्मा की भिन्नता —— भेद - विज्ञान, सभी सांयोगिक पदार्थों की आत्मा से पार्थक्य की
प्रतीति ।
२. व्युत्सर्ग— निःसंग भाव से अनासक्तिपूर्वक शरीर तथा उपकरणें का विशेष रूप से उत्सर्ग—त्याग
जया जोगे निरंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ । तया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ ॥ जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ । तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ॥
दशवैकालिक सूत्र ४.२४-२५