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________________ औपपातिकसूत्र (२) एकत्व-वितर्क-अविचार पूर्वधर-पूर्वसूत्र का ज्ञाता-पूर्वश्रुत-विशिष्ट ज्ञान के किसी एक परिणाम पर चित्त को स्थिर करता है। वह शब्द, अर्थ, मन, वाक् तथा देह पर संक्रमण नहीं करता। वैसा ध्यान एकत्व-वितर्क-अविचार की संज्ञा से अभिहित है। पहले में पृथक्त्व है अत: वह सविचार है, दूसरे में एकत्व है, इस अपेक्षा से उसकी अविचार संज्ञा है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि पहले में वैचारिक संक्रम है, दूसरे में असंक्रम। आचार्य हेमचन्द्र ने इन्हें नानात्वश्रुत-विचार तथा ऐक्य-श्रुत-अविचार संज्ञा से अभिहित किया है। विवेचन- महर्षि पतञ्जलि द्वारा वर्णित निर्वितर्क-समापत्ति एकत्व-वितर्क-अविचार से तुलनीय है। पतञ्जलि लिखते हैं "जब स्मृति परिशुद्ध हो जाती है अर्थात् शब्द और प्रतीति की स्मृति लुप्त हो जाती है, चित्तवृत्ति केवल अर्थमात्र का—ध्येयमात्र का निर्भास करने वाली—ध्येयमात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष करने वाली हो, स्वयं स्वरूपशून्य की तरह बन जाती हो, तब वैसी ही स्थिति निर्वितर्क-समापत्ति से संज्ञित होती है।"२ यह विवेचन स्थूल ध्येय पदार्थों की दृष्टि से है। जहाँ ध्येय पदार्थ सूक्ष्म हों, वहाँ उक्त दोनों की संज्ञा सविचार और निर्विचार समाधि है, ऐसा पतञ्जलि कहते हैं। निर्विचार-समाधि में अत्यन्त वैशद्य-नैर्मल्य रहता है। अत: योगी उसमें अध्यात्म-प्रसाद—आत्म-उल्लास प्राप्त करता है। उस समय योगी की प्रज्ञा ऋतंभरा होती है, 'ऋतम्' का अर्थ सत्य है । वह प्रज्ञा या विशिष्ट बुद्धि सत्य का ग्रहण करने वाली होती है। उसमें संशय और भ्रम का लेश भी नहीं रहता। उस ऋतंभरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कारों के प्रभाव से अन्य संस्कारों का अभाव हो जाता है। अन्ततः ऋतंभरा प्रज्ञा से जनित संस्कारों में भी आसक्ति न रहने के कारण उनका भी निरोध हो जाता है। यों समस्त संस्कार निरुद्ध हो जाते हैं। फलतः संसार के बीज का सर्वथा अभाव हो जाता है, निर्बीज-समाधि-दशा प्राप्त होती है। इस सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण इस प्रकार है जैन दर्शन के अनुसार आत्मा पर जो कर्मावरण छाये हुए हैं, उन्हीं के कारण उसका शुद्ध स्वरूप आवृत है। ज्यों-ज्यों उन आवरणों का विलय होता जाता है, आत्मा की वैभाविक दशा छूटती जाती है और वह स्वाभाविक दशा प्राप्त करती जाती है। आवरण के अपचय या नाश के जैनदर्शन में तीन क्रम हैं—क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम। किसी कार्मिक आवरण का सर्वथा नष्ट या निर्मूल हो जाना क्षय, अवधिविशेष के लिए शान्त हो जाना उपशम तथा कर्मों की कतिपय प्रकृतियों का सर्वथा क्षीण हो जाना तथा कतिपय प्रकृतियों का अवधिविशेष के लिए उपशान्त हो जाना क्षयोपशम कहा जाता है। कर्मों के उपशम से जो समाधि-अवस्था प्राप्त होती है, वह सबीज है, क्योंकि वहाँ कर्म-बीज का सर्वथा उच्छेद नहीं होता, केवल उपशम होता है। कार्मिक आवरणों के सम्पूर्ण क्षय से जो समाधिअवस्था प्राप्त होती है, वह निर्बीज है, क्योंकि वहाँ कर्म-बीज परिपूर्ण रूप में दग्ध हो जाता है। कर्मों के उपशम से १. ज्ञेयं नानात्वश्रुतविचारमैक्यश्रुताविचारं च । सूक्ष्मक्रियमुत्सन्नक्रियमिति भेदैश्चतुर्धा तत् ॥ २. स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का। एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता। - योगशास्त्र ११.५ —पातञ्जल योगदर्शन १.४३ - पातञ्जल योगदर्शन १.४४
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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