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________________ ध्यान, पृथक्त्व-वितर्क - सविचार ३. परिवर्तना— जाने हुए, सीखे हुए ज्ञान की ६९ पुनः आवृत्ति करना, ज्ञात विषय में मानसिक, वाचिक वृत्ति लगाना । ४. धर्मकथा— धर्मकथा करना, धार्मिक उपदेशप्रद कथाओं, जीवन-वृत्तों, प्रसंगों द्वारा आत्मानुशासन में गतिशील होना । धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ— भावनाएँ या विचारोत्कर्ष की अभ्यास-प्रणालिकाएँ बतलाई गई हैं। वे इस प्रकार हैं १. अनित्यानुप्रेक्षा — सुख, सम्पत्ति, वैभव, भोग, देह, यौवन, आरोग्य, जीवन, परिवार आदि सभी ऐहिक वस्तुएँ अनित्य हैं— अशाश्वत हैं, यों चिन्तन करना, ऐसे विचारों का अभ्यास करना । २. अशरणानुप्रेक्षा— जन्म, जरा, रोग, कष्ट, वेदना, मृत्यु आदि की दुर्धर विभीषिका में जिनेश्वर देव के वचन के अतिरिक्त जगत् में और कोई शरण नहीं है, यों बार-बार चिन्तन करना । ३. एकत्वानुप्रेक्षा— मृत्यु, वेदना, पीड़ा, शोक, शुभ-अशुभ कर्म-फल इत्यादि सब जीव अकेला ही पाता है, भोगता है, सुख-दु:ख, उत्थान, पतन आदि का सारा दायित्व एकमात्र अपना अकेले का है। अतः क्यों न प्राणी आत्मकल्याण साधने में जुटे, इस प्रकार की वैचारिक प्रवृत्ति जगाना, उसे बल देना, गतिशील करना । ४. संसारानुप्रेक्षा— संसार में यह जीव कभी पिता, कभी पुत्र, कभी माता, कभी पुत्री, कभी भाई, कभी बहिन, कभी पति, कभी पत्नी होता है— इत्यादि कितने-कितने रूपों में संसरण करता है, यों वैविध्यपूर्ण सांसारिक सम्बन्धों का, सांसारिक स्वरूप का पुनः - पुनः चिन्तन करना, आत्मोन्मुखता पाने हेतु विचाराभ्यास करना। १. शुक्लध्यान स्वरूप, लक्षण, आलम्बन तथा अनुप्रेक्षा के भेद से चार प्रकार का कहा गया है। इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद हैं। स्वरूप की दृष्टि से शुक्लध्यान के चार भेद इस प्रकार हैं (१) पृथक्त्व - वितर्क - सविचार वितर्क का अर्थ श्रुतावलम्बी विकल्प है। पूर्वधर मुनि पूर्वश्रुत — विशिष्ट ज्ञान के अनुसार किसी एक द्रव्य का आलम्बन लेकर ध्यान करता है। किन्तु उसके किसी एक परिणाम या पर्याय ( क्षण-क्षणवर्ती अवस्था - विशेष) पर स्थिर नहीं रहता, उसके विविध परिणामों पर संचरण करता है— शब्द से अर्थ पर, अर्थ से शब्द पर तथा मन, वाणी एवं देह में एक दूसरे की प्रवृत्ति पर संक्रमण करता है, अनेक अपेक्षाओं से चिन्तन करता है। ऐसा करना पृथक्त्ववितर्क - सविचार शुक्लध्यान है। शब्द, अर्थ, मन, वाक् तथा देह का संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही होता है। विवेचन — महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में सवितर्क-समापत्ति का जो वर्णन किया है, वह पृथक्त्व-वितर्कसविचार शुक्लध्यान से तुलनीय है । वहाँ शब्द, अर्थ और ज्ञान—इन तीनों के विकल्पों से संकीर्ण— सम्मिलित समापत्तिसमाधि को सवितर्क-समापत्ति कहा गया है। जैन एवं पातञ्जल योग से सम्बद्ध इन दोनों विधाओं की गहराई में जाने से अनेक दार्शनिक तथ्यों का प्राकट्य संभाव्य है। तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः । - पातञ्जल योगदर्शन १. ४२
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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