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________________ औपपातिकसूत्र तक उनको मूल रूप में बनाये रखा है।' एक से दूसरे द्वारा श्रुति-परम्परा से आगम-प्राप्तिक्रम के बावजूद जैन आगम-वाङ्मय में कोई विशेष मौलिक परिवर्तन आया हो, ऐसा संभव नहीं लगता। सामान्यतः लोग कह देते हैं, किसी से एक वाक्य भी सुनकर दूसरा व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति को बताए तो यत्किञ्चित् परिवर्तन आ सकता है, फिर यह कब संभव है कि इतने विशाल आगम-वाङ्मय में काल की इस लम्बी अवधि के बीच भी कोई परिवर्तन नहीं आ सका। साधारणतया ऐसी शंका उठना अस्वाभाविक नहीं है किन्तु आगम-पाठ की उपर्युक्त परम्परा से स्वतः समाधान हो जाता है कि जहाँ मूल पाठ की सुरक्षा के लिए इतने उपाय प्रचलित थे, वहाँ आगमों का मूल स्वरूप क्यों नहीं अव्याहत और अपरिवर्तित रहता। अर्थ या अभिप्राय का आश्रय सूत्र का मूल. पाठ है। उसी की पृष्ठभूमि पर उसका पल्लवन और विकास संभव है। अतएव उसके शुद्ध स्वरूप को स्थिर रखने के लिए सूत्र-वाचना या पठन का इतना बड़ा महत्त्व समझा गया कि श्रमण-संघ में उसके लिए 'उपाध्याय' का पृथक पद प्रतिष्ठित किया गया। वैदिक परम्परा में वेद, उसके अंग आदि के अध्यापन के सन्दर्भ में आचार्य एवं उपाध्याय पदों का उल्लेख हुआ है। आचार्य के सम्बन्ध में लिखा है "जो द्विज शिष्य का उपनयन-संस्कार कर उसे संकल्प-कल्प या यज्ञविद्या सहित, सरहस्य-उपनिषद् सहित वेद पढ़ाता है, उसे आचार्य कहते हैं।" उपाध्याय के सम्बन्ध में उल्लेख है "जो वेद का एक भाग मन्त्रभाग तथा वेद के अंग-शिक्षा—ध्वनि-विज्ञान, कल्प-कर्मकाण्ड-विधि, व्याकरण शब्दशास्त्र, निरुक्त शब्द-व्याख्या या व्युत्पत्तिशास्त्र तथा ज्योतिष-नक्षत्र-विज्ञान पढ़ाता है, उसे उपाध्याय कहा जाता है। आचार्य तथा उपाध्याय—दोनों के अध्यापनक्रम पर सूक्ष्मता से विचार करने पर प्रतीत होता है कि आचार्य वेदों के रहस्य एवं गहन अर्थ का ज्ञान कराते थे और उपाध्याय वेद-मन्त्रों का विशुद्ध उच्चारण, विशुद्ध पाठ सिखाते थे। जैन परम्परा में स्वीकृत आचार्य तथा उपाध्याय के पाठनक्रम के साथ प्रस्तुत प्रसंग तुलनीय है। स्थविर . जैन श्रमण-संघ में स्थविर का पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्थानांग सूत्र में दश प्रकार के स्थविर बतलाये गये संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ १७ उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः । सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते ॥ - मनुस्मृति २.१४० शिक्षा व्याकरणं छन्दो निरुक्तं ज्योतिष तथा । कल्पश्चेति षडङ्गानि वेदस्याहुर्मनीषिणः ॥ - संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ ४४ १. ग्राम-स्थविर, २. नगर-स्थविर, ३. राष्ट्र-स्थविर, ४. प्रशास्तृ-स्थविर, ५. कुल-स्थविर, ६. गण-स्थविर, ७. संघ-स्थविर, ८. जाति-स्थविर, ९. श्रुत-स्थविर, १०. पर्याय-स्थविर। -स्थानांग सूत्र १०.७६१
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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