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________________ नारकों का बीभत्स शरीर] [३१ ११. कुम्भ-ये असुर नारकों को कुम्भियों में पकाते हैं । १२. बालु-ये वैक्रियलब्धि द्वारा बनाई हुई कदम्ब-वालुका अथवा वज्र-बालुका-रेत में नारकों को चना आदि की तरह भूनते हैं । १३. वैतरणी—ये यम पुरुष मांस, रुधिर, पीव, पिघले ताँबे-सीसे आदि अत्युष्ण पदार्थों से उबलती-उफनती वैतरणी नदी में नारकों को फेंक देते हैं और उसमें तैरने को विवश करते हैं । १४. खरस्वर-ये वज्रमय तीक्ष्ण कंटकों से व्याप्त शाल्मली वृक्ष पर चढ़ा कर करुण प्राक्रन्दन करते नारकों को इधर-उधर खींचते हैं । १५. महाघोष-ये भयभीत होकर अथवा दुस्सह यातना से बचने के अभिप्राय से भागते हुए नारक जीवों को बाड़े में बन्द करते हैं और भयानक ध्वनि करते हुए उन्हें रोक देते हैं । इस प्रकार हिंसा करने वाले और हिंसा करके आनन्द का अनुभव करने वाले जीवों को नरक में उत्पन्न होकर जो वचनागोचर घोरतर यातनाएँ भुगतनी पड़ती हैं, यहाँ उनका साधारण शब्द-चित्र ही खींचा गया है । वस्तुतः वे वेदनाएँ तो अनुभव द्वारा ही जानी जा सकती हैं। नारकों का बीभत्स शरीर २४–तत्थ य अंतोमुहुत्तलद्विभवपच्चएणं णिवत्तंति उ ते सरीरं हुडं बीभच्छदरिसणिज्जं बोहणगं अट्ठि-हारु-णह-रोम-वज्जियं असुभगं दुक्खविसहं । तमो य पज्जत्तिमुवगया इंदिएहिं पंचहि वेएंति असुहाए वेयणाए उज्जल-बल-विउल-कक्खडखर-फरुस-पयंड-घोर-बोहणगदारुणाए । २४-वे पूर्वोक्त पापी जीव नरकभूमि में उत्पन्न होते ही अन्तर्मुहूर्त में नरकभवकारणक (वैक्रिय) लब्धि से अपने शरीर का निर्माण कर लेते हैं। वह शरीर हुंड-हुंडक संस्थान वालाबेडौल, भद्दी आकृति वाला, देखने में बीभत्स, घृणित, भयानक, अस्थियों, नसों, नाखूनों और रोमों से रहित; अशुभ और दु:खों को सहन करने में सक्षम होता है। शरीर का निर्माण हो जाने के पश्चात् वे पर्याप्तियों से-इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और भाषामन रूप पर्याप्तियों से पूर्ण–पर्याप्त हो जाते हैं और पांचों इन्द्रियों से अशुभ वेदना का वेदन करते हैं। उनकी वेदना उज्ज्वल, बलवती, विपुल, उत्कट, प्रखर, परुष, प्रचण्ड, घोर, बीहनक-डरावनी और दारुण होती है। विवेचन-वेदना का सामान्य अर्थ है-अनुभव करना। वह प्रायः दो प्रकार की होती हैसातावेदना और असातावेदना । अनुकूल, इष्ट या सुखरूप वेदना सातावेदना कहलाती है और प्रतिकूल, अनिष्ट या दुःखरूप वेदना को असातावेदना कहते हैं। नारक जीवों की वेदना आसातावेदना ही होती है। उस असातावेदना का प्रकर्ष प्रकट करने के लिए शास्त्रकार ने अनेक विशेषणों का प्रयोग किया है। इन विशेषणों में आपाततः एकार्थकता का प्राभास होता है किन्त 'शब्दभेदादर्थभेदः' अर्थात् शब्द के भेद से अर्थ में भेद हो जाता है, इस नियम के अनुसार प्रत्येक शब्द के अर्थ में विशेषता-भिन्नता है, जो इस प्रकार है
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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