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हिंसक जीवों का दृष्टिकोण]
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के ऊपर कहे गए तथा नहीं कहे गए ऐसे बहुत-से सैकड़ों कारणों से अज्ञानी जन वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं।
विवेचन-वनस्पतिकाय की सजीवता अब केवल आगमप्रमाण से ही सि विज्ञान से भी सिद्ध हो चुकी है। वनस्पति का आहार करना, आहार से वृद्धिंगत होना, छेदन-भेदन करने से मुरझाना आदि जीव के लक्षण प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं। इनके अतिरिक्त उनमें चैतन्य के सभी धर्म विद्यमान हैं। वनस्पति में क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय हैं, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह रूप संज्ञाएँ हैं, लेश्या विद्यमान है, योग और उपयोग है । वे मानव की तरह सुख-दुःख का अनुवेदन करते हैं । अतएव वनस्पति की सजीवता में किंचित् भी सन्देह के लिए अवकाश नहीं है।
___ वनस्पति का हमारे जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। उसका प्रारंभ-समारंभ किए विना गृहस्थ का काम नहीं चल सकता। तथापि निरर्थक आरंभ का विवेकी जन सदैव त्याग करते हैं । प्रयोजन विना वृक्ष या लता का एक पत्ता भी नहीं तोड़ते नहीं तोड़ना चाहिए।
वृक्षों के अनाप-सनाप काटने से आज विशेषतः भारत का वायुमंडल बदलता जा रहा है । वर्षा की कमी हो रही है। लगातार अनेक प्रांतों में सूखा पड़ रहा है । हजारों मनुष्य और लाखों पशु मरण-शरण हो रहे हैं । अतएव शासन का वृक्षसंरक्षण की ओर ध्यान आकर्षित हुआ है। जैनशास्त्र सदा से ही मानव-जीवन के लिए वनस्पति की उपयोगिता और महत्ता का प्रतिपादन करते चले आ रहे हैं । इससे ज्ञानी पुरुषों की सूक्ष्म और दूरगामिनी प्रज्ञा का परिचय प्राप्त होता है। हिंसक जीवों का दृष्टिकोण
१८-सत्ते सत्तपरिवज्जिया उवहणंति दढमढा दारुणमई कोहा माणा माया लोहा हस्स रई अरई सोय वेयत्थी जीय-धम्मत्थकामहेउं सवसा अवसा अट्ठा अणट्ठाए य तसपाणे थावरे य हिंसंति मंदबुद्धी।
___ सवसा हणंति, अवसा हणंति, सवसा अवसा दुहनो हणंति, अट्ठा हणंति, अणट्ठा हणंति, अट्ठा प्रणट्ठा दुहनो हणंति, हस्सा हणंति, वेरा हणंति, रईय हणंति, हस्सा-वेरा-रईय हणंति, कुद्धा हणंति लुद्धा हणंति,, मुद्धा हणंति, कुद्धा लुद्धा मुद्धा हणंति, अत्था हणंति, धम्मा हणंति, कामा हणंति, अत्था धम्मा कामा हणंति ॥३॥
१८-दृढमूढ—हिताहित के विवेक से सर्वथा शून्य अज्ञानी, दारुण मति वाले पुरुष क्रोध से प्रेरित होकर, मान, माया और लोभ के वशीभूत होकर तथा हँसी-विनोद-दिलबहलाव के लिए, रति, अरति एवं शोक के अधीन होकर, वेदानुष्ठान के अर्थी होकर, जीवन, धर्म, अर्थ एवं काम के लिए, (कभी) स्ववश-अपनी इच्छा से और (कभी) परवशं—पराधीन होकर, (कभी) प्रयोजन से और (कभी) विना प्रयोजन त्रस तथा स्थावर जीवों का, जो अशक्त- शक्तिहीन हैं, घात करते हैं । (ऐसे हिंसक प्राणी वस्तुतः) मन्दबुद्धि हैं।
वे बुद्धिहीन क्रूर प्राणी स्ववश (स्वतंत्र) होकर घात करते हैं, विवश होकर घात करते हैं, स्ववश--विवश दोनों प्रकार से घात करते हैं । सप्रयोजन घात करते हैं, निष्प्रयोजन घात करते हैं, सप्रयोजन और निष्प्रयोजन दोनों प्रकार से घात करते हैं। (अनेक पापी जीव) हास्य-विनोद से, वैर से और अनुराग से प्रेरित होकर हिंसा करते हैं । क्रुद्ध होकर हनन करते हैं, लुब्ध होकर हनन