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[ प्रश्नव्याकरणसूत्र शु. १, अ. १
(३) श्रवीसंभ (प्रविश्रम्भ ) - प्रविश्वास, हिंसाकारक पर किसी को विश्वास नहीं होता वह विश्वासजनक है, अतः अविश्रम्भ है ।
(४) हिंसविहिंसा (हिंस्यविहिंसा) - जिसकी हिंसा की जाती है उसके प्राणों का हनन ।
(५) किच्चं ( प्रकृत्यम्) - सत्पुरुषों द्वारा करने योग्य कार्य न होने के कारण हिंसा अकृत्यकुकृत्य है ।
(६) घायणा ( घातना) - प्राणों का घात करना ।
(७) मारणा ( मारण ) – हिंसा मरण को उत्पन्न करने वाली होने से मारणा है ।
(८) वहणा ( वधना ) – हनन करना, वध करना ।
(९) उद्दवणा (उपद्रवणा ) - अन्य को पीड़ा पहुँचाने के कारण यह उपद्रवरूप है ।
(१०) तिवायणा ( त्रिपातना) मन, वाणी एवं काय अथवा देह, आयु और इन्द्रिय- इन तीन का पतन कराने के कारण यह त्रिपातना है । इसके स्थान पर 'निवायणा' पाठ भी है, किन्तु अर्थ वही है ।
(११) प्रारंभ समारंभ ( आरम्भ समारम्भ ) - जीवों को कष्ट पहुँचाने से या कष्ट पहुँचा हुए उन्हें मारने से हिंसा को प्रारम्भ समारम्भ कहा है । जहाँ प्रारम्भ - समारम्भ है, वहाँ हिंसा अनिवार्य है ।
(१२) प्राउयक्कम्मस्स उवद्दवो - भेयणिट्टवणगालणा य संवट्टगसंखेवो (आयुः कर्मणः उपद्रवः - भेदनिष्ठापनगालना - संवर्त्तकसंक्षेप : ) – आयुष्य कर्म का उपद्रवण करना, भेदन करना प्रथवा श्रायु को संक्षिप्त करना - दीर्घकाल तक भोगने योग्य आयु को अल्प समय में भोगने योग्य बना देना ।
(१३) मच्चू (मृत्यु) - मृत्यु का कारण होने से अथवा मृत्यु रूप होने से हिंसा मृत्यु है ।
(१४) संजमो (असंयम ) - जब तक प्राणी संयमभाव में रहता है, तब तक हिंसा नहीं होती । संयम की सीमा से बाहर - असंयम की स्थिति में ही हिंसा होती है, अतएव वह असंयम है । (१५) कडगमद्दण ( कटकमर्दन ) - सेना द्वारा आक्रमण करके प्राणवध करना अथवा सेना का वध करना ।
(१६) वोरमण ( व्युपरमण ) - प्राणों से जीव को जुदा करना ।
(१७) परभवसंकामकारम्रो ( परभवसंक्रमकारक ) - वर्तमान भव से विलग करके परभव में पहुंचा देने के कारण यह परभवसंक्रमकारक है ।
(१८) दुग्गतिप्पवा ( दुर्गतिप्रपात ) - नरकादि दुर्गति में गिराने वाली ।
(१९) पावकोव ( पापकोप) (२०) पावलोभ (पापलोभ ) - (२१) छविच्छे विच्छेद है ।
) - पाप को कुपित - उत्तेजित करने वाली -भड़काने वाली । - पाप के प्रति लुब्ध करने वाली - प्रेरित करने वाली 1 (छविच्छेद ) – हिंसा द्वारा विद्यमान शरीर का छेदन होने से यह