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________________ प्राणवध के नामान्तर [१५ (२२) जीवियंतकरण (जीवितान्तकरण)-जीवन का अन्त करने वाली। (२३) भयंकर (भयङ्कर)-भय को उत्पन्न करने वाली। (२४) अणकर (ऋणकर)-हिंसा करना अपने माथे ऋण-कर्ज चढ़ाना है, जिसका भविष्य में भुगतान करते घोर कष्ट सहना पड़ता है। (२५) वज्ज (वज्र-वर्य)-हिंसा जीव को वज्र की तरह भारी बनाकर अधोगति में ले जाने का कारण होने से वज्र है और आर्य पुरुषों द्वारा त्याज्य होने से वर्ण्य है। (२६) परियावण-अण्हन (परितापन-प्रास्रव)-प्राणियों को परितापना देने के कारण कर्म के आस्रव का कारण । (२७) विणास (विनाश)-प्राणों का विनाश करना। (२८) णिज्जवणा (निर्यापना)-प्राणों की समाप्ति का कारण । (२९) लुपणा (लुम्पना)-प्राणों का लोप करना। (३०) गुणाणं विराहणा (गुणानां विराधना)-हिंसा मरने और मारने वाले दोनों के सद्गुणों को विनष्ट करती है, अतः वह गुणविराधनारूप है । विवेचन–स्वरूपसूचक नामों में दृश्यकालीन अर्थात् अभिव्यक्त हिंसा का चित्रण हुमा है। साथ ही हिंसा की प्रवृत्ति, परिणाम, कारण, उपजीवी, अनुजीवी, उत्तेजक, उद्दीपक, अंतर्बाह्य तथ्यों के आधार पर भी गुणनिष्पन्न नाम दिए हैं । ग्रंथकार ने गुणनिष्पन्न नामों का आधार बताते हुए लिखा है-'कलुसस्स कडुयफलदेसगाई'--कलुष (हिंसारूप पाप) के कटुफल-निर्देशक ये नाम हैं। भाषा का हम सदैव उपयोग करते हैं, किंतु शब्दगत अर्थभेद की विविधता से प्रायः परिचित नहीं रहते । एक परिवार के अनेक शब्द होते हैं, जो समानताओं में बँधे होकर भी एक सूक्ष्म विभाजक रेखा से अलग-अलग होते हैं । गुणनिष्पन्न नाम ऐसे ही हैं । प्राणवध, व्युपरमण, मृत्यु, जीवनविनाश ये गुणनिष्पन्न नाम समानताओं में बंधे होकर भी स्वयं की विशेषता प्रदर्शित करते हैं। प्राणवध में हिंसाप्रवृत्ति द्वारा प्राणियों का (प्राणों का) घात अभिप्रेत है। व्युपरमण में प्राणों से अर्थात् जीवन से प्राणी पृथक् होता है । व्युपरमणं-प्राणेभ्यः उपरमणं । प्राणवध से चैतन्य के शारीरिक सम्बन्ध के लिए आधारभूत जो प्राणशक्ति है, उस प्राणशक्ति पर हो आघात प्रकट होता है । व्युपरमण में उस आधारभूत शक्ति से चैतन्य विरत होता है या परिस्थितियों के कारण उसे विरत होना पड़ता है । प्राणवध में हत्या का भाव तथा व्युपरमण में आत्महत्या का भाव समाविष्ट है । मृत्यु, जीवनविनाश एवं परभवसंक्रामणकारक, इस शब्दत्रयी में जीवन-समाप्तिकाल की घटना को तीन दृष्टियों से विश्लेषित किया गया है। 'मृत्युः, परलोकगमनकालः । परभवसंक्रामणकारकः प्राणातिपातस्यैव परभवगमनं। जीवितव्यं प्राणधारणं तस्य अंतकरः ।' सहजतया होनेवाली मृत्यु हिंसा नहीं है। परभवसंक्रमणकारक में भवान्तक को जो हेतु है, वह अभिप्रेत है। जीवित-अंतकर में जीने की इच्छा को या जिसके लिए व्यक्ति जीता है, जिसके आलंबन से जीता है, उसका विनाश अभिप्रेत है । जैसे धनलोभी व्यक्ति का धन ही सर्वस्व होता है। उसके प्राण धर्म में होते हैं । धन का विनाश उसके जीवन का विनाश होता है।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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