SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६३] | प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. २, अ. ५ IT बन्ध करते हैं और आत्मा को मलीन बनाते हैं । इससे ग्रन्थ अनेक अनर्थ भी उत्पन्न होते हैं । शब्दों के कारण हुए भीषण अनर्थों के उदाहरण पुराणों और इतिहास में भरे पड़े हैं । द्रौपदी के एक वाक्य ने महाभारत जैसे विनाशक महायुद्ध की भूमिका निर्मित कर दी । तत्त्वज्ञानी जन पारमार्थिक वस्तुस्वरूप के ज्ञाता होते हैं । वे अपनी मनोवृत्ति पर नियंत्रण रखते हैं । वे शब्द को शब्द ही मानते हैं । उसमें प्रियता या अप्रियता का श्रारोप नहीं करते, न किसी शब्द को गाली मान कर रुष्ट होते हैं, न स्तुति मान कर तुष्ट होते हैं । यही श्रोत्रेन्द्रियसंवर है । आचारांग में कहा है - नसक्का सोउं सद्दा, सोत्तविसयमागया । राग-दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । अर्थात् कर्ण - कुहर में प्रविष्ट शब्दों को न सुनना तो शक्य नहीं है - वे सुनने में प्राये विना रह नहीं सकते, किन्तु उनको सुनने से उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष से भिक्षु को बचना चाहिए । तात्पर्य यह है कि श्रोत्रेन्द्रिय को बन्द करके रखना संभव नहीं है । दूसरों के द्वारा बोले हुए शब्द श्रोत्रगोचर होंगे ही। किन्तु साधक सन्त उनमें मनोज्ञता अथवा अमनोज्ञता का आरोप न होने दे -- अपनी मनोवृत्ति को इस प्रकार अपने अधीन कर रक्खे कि वह उन शब्दों पर प्रियता या अप्रियता का रंग न चढ़ने दे । ऐसा करने वाला सन्त पुरुष श्रोत्रेन्द्रियसंवरशील कहलाता है । जो तथ्य श्रोत्रेन्द्रिय के विषयभूत शब्दों के विषय में है, वही चक्षुरिन्द्रिय आदि के विषय रूपादि में समझ लेना चाहिए । इस प्रकार पाँचों इन्द्रियों के संवर से सम्पन्न और मन, वचन, काय से गुप्त होकर ही साधु को धर्म का आचरण करना चाहिए। मूल पाठ में प्राये कतिपय शब्दों का स्पष्टीकरण इस भाँति है नन्दी - बारह प्रकार के वाद्यों की ध्वनि नन्दी कहलाती है । वे वाद्य इस भांति हैं भंभा मउंद मद्दल हुडुक्क तिलिमा य करड कंसाला । काहल वीणा वंसो संखो पणवप्रो य वारसमो || अर्थात् (१) भंभा (२) मउंद (३) मद्दल (४) हुडुक्क (५) तिलिमा (६) करड (७) कंसाल (८) काहल ( ९ ) वीणा (१०) वंस (११) संख और (१२) पणव । कुष्ठ-- कोढ़ नामक रोग प्रसिद्ध है । उनके यहाँ अठारह प्रकार बतलाए गए हैं । इनमें सात महाकोढ़ और ग्यारह साधारण - क्षुद्र कोढ़ माने गए हैं। टीकाकार लिखते हैं कि सात महाकुष्ठ समग्र धातुओं में प्रविष्ट हो जाते हैं, अतएव साध्य होते हैं । महाकुष्ठों के नाम हैं(१) अरुण (२) उदुम्बर ( ३ ) रिश्यजिह्न ( ४ ) करकपाल ( ५ ) काकन (६) पौण्डरीक (७) दद्रू । ग्यारह क्षुद्रकुष्ठों के नाम हैं - ( १ ) स्थूलमारुक्क (२) महाकुष्ठ (३) एककुष्ठ (४) चर्मदल (५) विसर्प (६) परिसर्प (७) विचचिका (८) सिध्म ( ९ ) किटिभ (१०) पामा और शतारुका । ' विशिष्ट जिज्ञासुओं को आयुर्वेदग्रन्थों से इनका स्वरूप समझ लेना चाहिए । १ - अभय टीका, पृ. १६१
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy