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________________ उपसंहार] [२६१ १७०-इस (पूर्वोक्त) प्रकार से यह पाँचवां संवरद्वार-अपरिग्रह–सम्यक् प्रकार से मन, वचन और काय से परिरक्षित पाँच भावना रूप कारणों से संवृत किया जाय तो सुरक्षित होता है। धैर्यवान् और विवेकवान् साधु को यह योग जीवनपर्यन्त निरन्तर पालनीय है। यह प्रास्रव को रोकने वाला, निर्मल, मिथ्यात्व आदि छिद्रों से रहित होने के कारण अपरिस्रावी, संक्लेशहीन, शुद्ध और समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है । इस प्रकार यह पाँचवां संवरद्वार शरीर द्वारा स्पृष्ट, पालित, अतिचाररहित शद्ध किया हया. परिपूर्णता पर पहुँचाया हया, वचन द्वारा कीत्तित किया हया, अनूपालित तथा तीर्थंकरों को प्राज्ञा के अनुसार पाराधित होता है। ज्ञातमुनि भगवान् ने ऐसा प्रतिपादन किया है। युक्तिपूर्वक समझाया है। यह प्रसिद्ध, सिद्ध और भवस्थ सिद्धों-अरिहन्तों का उत्तम शासन कहा गया है, समीचीन रूप से उपदिष्ट है । यह प्रशस्त संवरद्वार पूर्ण हुआ। ऐसा मैं (सुधर्मा) कहता हूँ। विवेचन-उल्लिखित सूत्रों में अपरिग्रह महाव्रत रूप संवर की पाँच भावनाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वे भावनाएँ इस प्रकार हैं-(१) श्रोत्रेन्द्रियसंवर (२) चक्षुरिन्द्रियसंवर (३) घ्राणेन्द्रियसंवर (४) रसनेन्द्रियसंवर और (५) स्पर्शनेन्द्रियसंवर । शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श, ये इन्द्रियों के विषय हैं। प्रत्येक विषय अनुभूति की दृष्टि से दो प्रकार का है—मनोज्ञ और अमनोज्ञ । प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषय को ग्रहण करती है तब वह विषय सामान्यरूप ही होता है । किन्तु उस ग्रहण के साथ ही आत्मा में विद्यमान संज्ञा उसमें प्रियता या अप्रियता का रंग घोल देती है । जो विषय प्रिय प्रतीत होता है वह मनोज्ञ कहलाता है और जो अप्रिय अनुभूत होता है वह अमनोज्ञ प्रतीत होता है । ___ वस्तुतः मनोज्ञता अथवा अमनोज्ञता विषय में स्थित नहीं है, वह प्राणी की कल्पना द्वारा आरोपित है । उदाहरणार्थ शब्द को ही लीजिए । कोई भी शब्द अपने स्वभाव से प्रिय अथवा अप्रिय नहीं है। हमारी मनोवत्ति अथवा संज्ञा ही उसमें यह विभेद उत्पन्न करती है और किसी शब्द को प्रिय—मनोज्ञ और किसी को अप्रिय-अमनोज्ञ मान लेती है। मनोवृत्ति ने जिस शब्द को प्रिय स्वीकार कर लिया उसे श्रवण करने से रागवत्ति उत्पन्न हो जाती है और जिसे अप्रिय मान लिया उसके प्रति द्वेषभावना जाग उठती है। यही कारण है कि प्रत्येक मनुष्य को कोई भी एक शब्द सर्वदा एक-सा प्रतीत नहीं होता। एक परिस्थिति में जो शब्द अप्रिय–अमनोज्ञ प्रतीत होता है और जिसे सुन कर क्रोध भड़क उठता है, आदमी मरने-मारने को उद्यत हो जाता है, वही शब्द दूसरी परिस्थिति में ऐसा कोई प्रभाव उत्पन्न नहीं करता, प्रत्युत हर्ष और प्रमोद का जनक भी बन जाता है । गाली सुन कर मनुष्य आगबबूला हो जाता है। परन्तु ससुराल की गालियाँ मीठी लगती हैं। तात्पर्य यह है कि एक ही शब्द विभिन्न व्यक्तियों के मन पर और विभिन्न परिस्थितियों में एक ही व्यक्ति के मन में अलग-अलग प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करता है। इस विभिन्न प्रभावजनकता से स्पष्ट हो जाता है कि प्रभावजनन की मूल शक्ति शब्दनिष्ठ नहीं, किन्तु मनोवृत्तिनिष्ठ है। इस वस्तुतत्त्व को भलीभाँति नहीं समझने वाले और शब्द को ही इष्ट-अनिष्ट मान लेने वाले शब्द श्रवण करके राग अथवा द्वेष के वशीभूत हो जाते हैं। राग-द्वेष के कारण नवीन कर्मों
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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