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अपरिग्रहव्रत को पाँच भावनाएँ]
[२५७ तीसरी भावना : घ्राणेन्द्रिय-संयम
१६७-तइयं-घाणिदिएण अग्घाइय गंधाइं मणुण्णभद्दगाईकिते?
जलय-थलय-सरस-पुप्फ-फल-पाणभोयण-कुट्ठ-तगर-पत्त-चोय-दमणग-मरुय-एलारस-पिक्क-मंसिगोसीस-सरस-चंदण- कप्पूर-लवंग- अगर-कुकुम-कक्कोल-उसीर- सेयचंदण-सुगंधसारंग-जुत्तिवर-धूववासे उउय-पिडिम-णिहारिमगंधिएसु अण्णेसु य एवमाइएसु गंधेसु मण्णुण्णभद्दएसु ण तेसु समणेण सज्जियन्वं जाव ण सइं च मइंच तत्थ कुज्जा ।
पुणरवि घाणिदिएण अग्घाइय गंधाइं प्रमणुण्णपावगाइंकि ते ?
अहिमड-अस्समड-हत्थिमड-गोमड-विग-सुणग-सियाल-मणुय- मज्जार-सीह-दीविय-मयकुहियविणटुकिविण-बहुदुरभिगंधेसु अण्णेसु य एवमाइएसु गंधेसु अमणुण्ण-पावगेसु ण तेसु समणेण रूसियव्वं जाव पणिहिएंदिए चरेज्ज धम्म ।
१६७-घ्राणेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावना गंध सूचकर (रागादि नहीं करना चाहिए)। (प्र०) वे सुगन्ध क्या-कैसे हैं ?
(उ०) जल.और स्थल में उत्पन्न होने वाले सरस पुष्प, फल, पान, भोजन, उत्पलकुष्ठ, तगर, तमालपत्र, चोय-सुगन्धित त्वचा, दमनक (एक विशेष प्रकार का फूल)-मरुपा, एलारस-- इलायची का रस, पका हुआ मांसी नामक सुगन्ध वाला द्रव्य-जटामासी, सरस गोशीर्ष चन्दन, कपूर, लवंग, अगर, कुकुम, कक्कोल-गोलाकार सुगन्धित फलविशेष, उशीर-खस, श्वेत, चन्दन, श्रीखण्ड आदि द्रव्यों के संयोग से बनी श्रे
भाव नहीं धारण करना चाहिए ) तथा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले कालोचित सुगन्ध वाले एवं दूर-दूर तक फैलने वाली सुगन्ध से युक्त द्रव्यों में और इसी प्रकार की मनोहर, नासिका को प्रिय लगने वाली सुगन्ध के विषय में मुनि को आसक्त नहीं होना चाहिए, यावत् अनुरागादि नहीं करना चाहिए । उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त घ्राणेन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने गंधों को सूधकर (रोष आदि नहीं करना चाहिए)।
वे दुर्गन्ध कौन-से हैं ?
मरा हुआ सर्प, मृत घोड़ा, मृत हाथी, मृत गाय तथा भेड़िया, कुत्ता, मनुष्य, बिल्ली, शृगाल, सिंह और चीता आदि के मृतक सड़े-गले कलेवरों की, जिसमें कीड़े बिलबिला रहे हों, दूर-दूर तक बदबू फैलाने वाली गन्ध में तथा इसी प्रकार के और भी अमनोज्ञ और असुहावनी दुर्गन्धों के विषय में साधु को रोष नहीं करना चाहिए यावत् इन्द्रियों को वशीभूत करके धर्म का आचरण करना चाहिए।
Trer पगन्ध का सघकर /TTTTrar