SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५६] [प्रश्नव्याकरणसूत्र श्रु. २, अ. ५ पर हों, वस्त्र पर हों, चित्र-लिखित हों, मिट्टी आदि के लेप से बनाए गए हों, पाषण पर अंकित हों, हाथीदांत आदि पर हों, पाँच वर्ण के और नाना प्रकार के आकार वाले हों, गूथ कर माला आदि की तरह बनाए गए हों, वेष्टन से, चपड़ी आदि भर कर अथवा संघात से—फूल आदि की तरह एकदूसरे को मिलाकर बनाए गए हों, अनेक प्रकार की मालाओं के रूप हों और वे नयनों तथा मन को अत्यन्त प्रानन्द प्रदान करने वाले हों (तथापि उन्हें देख कर राग नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए)। इसी प्रकार वनखण्ड, पर्वत, ग्राम, आकर, नगर तथा विकसित नील कमलों एवं (श्वेतादि) कमलों से सुशोभित और मनोहर तथा जिनमें अनेक हंस, सारस आदि पक्षियों के युगल विचरण कर रहे हों, ऐसे छोटे जलाशय, गोलाकार बावड़ी, चौकोर बावड़ी, दीपिका-लम्बी बावड़ी, नहर, सरोवरों की कतार, सागर, बिलपंक्ति, लोहे आदि की खानों में खोदे हुए गडहों की पंक्ति, खाई, नदी, सर-विना खोदे प्राकृतिक रूप से बने जलाशय, तडाग-तालाब, पानी की क्यारी (आदि को देख कर) अथवा उत्तम मण्डप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, चैत्य-स्मारक, देवालय, सभा-लोगों के बैठने के स्थानविशेष, प्याऊ. पावसथ परिव्राजकों के आश्रम, सनिमित शयन-पलंग आदि सिंहासन आदि प्रासन, शिविका–पालकी, रथ, गाड़ी, यान, युग्य–यानविशेष, स्यन्दन–घुघरूदार रथ या सांग्रामिक रथ और नर-नारियों का समूह, ये सब वस्तुएँ यदि सौम्य हों, आकर्षक रूप वालो दर्शनीय हों, आभूषणों से अलंकृत और सुन्दर वस्त्रों से विभूषित हों, पूर्व में की हुई तपस्या के प्रभाव से सौभाग्य को प्राप्त हों तो (इन्हें देखकर) तथा नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, विदूषक, कथावाचक, प्लवक, रास करने वाले व वार्ता कहने वाले, चित्रपट लेकर भिक्षा मांगने वाले, वांस पर खेल करने वाले, तूणइल्ल-तूणा बजाने वाले, तूम्बे की वीणा बजाने वाले एवं तालाचरों के विविध प्रयोग देख कर तथा बहुत से करतबों को देखकर (आसक्त नहीं होना चाहिए)। इस प्रकार के अन्य मनोज्ञ तथा सुहावने रूपों में साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए, यावत् उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके सिवाय चक्षुरिन्द्रिय से अमनोज्ञ और पापकारी रूपों को देखकर (रोष नहीं करना चाहिए)। (प्र.) वे (अमनोज्ञ रूप) कौन-से हैं ? (उ.) वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले गंडरोग वाले को, अठारह प्रकार के कुष्ठ रोग वाले को, कुणि कुट–टोंटे को, जलोदर के रोगी को, खुजली वाले को, श्लीपद रोग के रोगी को, लंगड़े को, वामन-बौने को, जन्मान्ध को, एकचक्षु (काणे) को, विनिहत चक्षु को–जन्म के पश्चात् जिसकी एक या दोनों आँखें नष्ट हो गई हों, पिशाचग्रस्त को अथवा पीठ से सरक कर चलने वाले को, विशिष्ट चित्तपीड़ा रूप व्याधि या रोग से पीड़ित को (इनमें से किसी को देखकर) तथा विकृत मृतक-कलेवरों को या बिलबिलाते कीड़ों से युक्त सड़ी-गली द्रव्यराशि को देखकर अथवा इनके सिवाय इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ और पापकारी रूपों को देखकर श्रमण को उन रूपों के प्रति रुष्ट नहीं होना चाहिए, यावत् अवहीलना आदि नहीं करनी चाहिए और मन में जुगुप्सा-घृणा भी नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए। इस प्रकार चक्षुरिन्द्रियसंवर रूप भावना से भावित अन्तःकरण वाला होकर मुनि यावत् धर्म का आचरण करे।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy