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अपरिग्रहनत की पांच भावनाएँ]
[२५५ निन्दा, अपमान, तर्जना भयजनक वचन, निर्भर्त्सना-सामने से हट जा, इत्यादि वचन, दीप्त-क्रोधयुक्त वचन, त्रासजनक वचन, उत्कृजित-अस्पष्ट उच्च ध्वनि, रुदनध्वनि, रटितधाड मार कर रोने, क्रन्दन-वियोगजनित विलाप आदि की ध्वनि, निघुष्ट-निर्घोषरूप ध्वनि, रसित -जानवर के समान चीत्कार, करुणाजनक शब्द तथा विलाप के शब्द-इन सब शब्दों में तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ एवं पापक-अभद्र शब्दों में साधु को रोष नहीं करना चाहिए, उनकी हीलना नहीं करनी चाहिए, निन्दा नहीं करनी चाहिए, जनसमूह के समक्ष उन्हें बुरा नहीं कहना चाहिए, अमनोज्ञ शब्द उत्पन्न करने वाली वस्तु का छेदन नहीं करना चाहिए, भेदन-टुकड़े नहीं करने चाहिए, उसे नष्ट नहीं करना चाहिए । अपने अथवा दूसरे के हृदय में जुगुप्सा उत्पन्न नहीं करनी चाहिए।
___ इस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय (संयम) की भावना से भावित अन्तःकरण वाला साधु मनोज्ञ एवं अमनोज्ञरूप शुभ-अशुभ शब्दों में राग-द्वेष के संवर वाला, मन-वचन और काय का गोपन करने वाला, संवरयुक्त एवं गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों का गोपन-कर्ता होकर धर्म का आचरण करे । द्वितीय भावना : चक्षुरिन्द्रिय-संवर
१६६–बिइयं-चक्खुइंदिएण पासिय रूवाणि मणुण्णाई भद्दगाई, सचित्ताचित्तमीसगाई कड़े पोत्थे य चित्तकम्मे लेप्पकम्मे सेले य दंतकम्मे य पंचहि वणेहि अणेगसंठाणसंठियाई गंठिम-वेढिमपूरिम-संघाइमाणि य मल्लाइं बहुविहाणि य अहियं णयणमणसुहयराइं, वणसंडे पम्वए य गामागरजयराणि य खुद्दिय-पुक्खरिणि-वावी-दीहिय-गुजालिय-सरसरपंतिय-सायर-बिल-पंतिय-खाइय-गईसर-तलाग-वप्पिणी-फुल्लुप्पल-पउमपरिमंडियाभिरामे प्रणेगसउणगण-मिहुण-वियरिए वरमंडव-विविहभवण-तोरण-चेइय-देवकुल-सभा-प्पवा-वसह-सुकयसयणासण-सीय-रह-सयड-जाण-जुग्ग-संदण-णरणारिगणे य सोमपडिरूव-दरिसणिज्जे प्रलंकिय-विभूसिए पुवकयतवप्पभाव-सोहग्गसंपउत्ते गड-गट्टगजल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबग-कहग-पवग-लासग-प्राइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुबवीणिय-तालायर-पकरपाणि यं बहुणि सुकरणाणि अण्णेसु य एवमाइएसु रूवेसु मणुण्णभद्दएसु म तेसु सममेण सज्जियव्वं, ण रजियव्वं जाव ण सइंच च सइंच तत्थ कुज्जा।
पुणरवि चक्खिदिएण पासिय रूवाइं प्रमणुण्णपावगाइं--
गंडि-कोढिक-कुणि- उयरि-कच्छुल्ल-पइल्ल-कुज्ज- पंगुल-वामण- अंधिल्लग-एगचक्खु-विणिहयसप्पिसल्लग-वाहिरोगपीलियं, विगयाणि मयगकलेवराणि सकिमिणकुहियं च दव्वरासिं, अण्णेसु य एवमाइएसु प्रमणुण्ण-पावगेसु ण तेसु समणेणं रूसियव्वं जाव ण दुगुछावत्तिया वि लम्भा उप्पाएउं, एवं चक्खिदियभावणाभाविप्रो भवइ अंतरप्पा जाव चरेज्ज धम्म ।
द्वितीय भावना चक्षुरिन्द्रिय का संवर है । वह इस प्रकार है
चक्षुरिन्द्रिय से मनोज्ञ-मन को अनुकूल प्रतीत होने वाले एवं भद्र-सुन्दर सचित्त द्रव्य, अचित्त द्रव्य और मिश्र-सचित्ताचित्त द्रव्य के रूपों को देख कर (राग नहीं करना चाहिए)। वे रूप चाहे काष्ठ