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[प्रश्नव्याकरणसूत्र :श्र. २, अ. ५
कंबिय-णिग्घुटुरसिय-कलुण-विलवियाई अण्णेसु य एक्माइएसु सद्देसु अमणुण्ण-पावएसुण तेसु समणेण रूसियवं, ण हीलियम्वं, ण णिदियध्वं, ण खिसियन्वं, ग छिदियव्वं, भिदियव्वं, ण वहेयव्वं, न दुगुछावत्तियाए लन्भा उप्पाएलं, एवं सोइंदिय-भावणा-भाविप्रो भवइ अंतरप्पा मणुण्णाऽमणुण्णसुन्भिदुन्भि-राग-दोसप्पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संवुडे पणिहिइंदिए चरेज्ज धम्मं ।
१६५–परिग्रहविरमणव्रत अथवा अपरिग्रहसंवर की रक्षा के लिए अन्तिम व्रत अर्थात् अपरिग्रहमहाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं । उनमें से प्रथम भावना (श्रोत्रेन्द्रियसंयम) इस प्रकार है
श्रोत्रेन्द्रिय से, मन के अनुकूल होने के कारण भद्र-सुहावने प्रतीत होने वाले शब्दों को सुन कर (साधु को राग नहीं करना चाहिए)।
(प्रश्न-) वे शब्द कौन से, किस प्रकार के हैं ?
(उत्तर-) उत्तम मुरज-महामर्दल, मृदंग, पणव-छोटा पटह, दर्दुर- एक प्रकार का वह वाद्य जो चमड़े से मढ़े मुख वाला और कलश जैसा होता है, कच्छभी-वाद्यविशेष, वीणा, विपंची
और वल्लकी (विशेष प्रकार की वीणाएँ), बद्दीसक-वाद्यविशेष, सुघोषा नामक एक प्रकार का घंटा, नन्दी-बारह प्रकार के बाजों का निर्घोष, सूसरपरिवादिनी-एक प्रकार की वीणा, वंशवांसुरी, तूणक एवं पर्वक नामक वाद्य, तंत्री-एक विशेष प्रकार की वीणा, तल-हस्ततल, ताल-कांस्य-ताल, इन सब बाजों के नाद को (सुन कर) तथा नट, नर्तक, जल्ल-वांस या रस्सी के ऊपर खेल दिखलाने वाले, मल्ल, मुष्टिमल्ल, विडम्बक-विदूषक, कथक-कथा कहने वाले, प्लवक-उछलने वाले, रास गाने वाले आदि द्वारा किये जाने वाले नाना प्रकार की मधुर ध्वनि से युक्त सुस्वर गीतों को (सुन कर) तथा करधनी-कंदोरा, मेखला (विशिष्ट प्रकार की करधनी), कलापक-गले का एक प्राभूषण, प्रतरक और प्रहेरक नामक आभूषण, पादजालक-नूपुर आदि आभरणों के एवं घण्टिका-घूघरू, खिखिनी-छोटी घंटियों वाला पाभरण, रत्नोरुजालक-रत्नों का जंघा का प्राभूषण, क्षुद्रिका नामक आभूषण, नेउर-नूपुर, चरणमालिका तथा कनकनिगड नामक पैरों के आभूषण और जालक नामक आभूषण, इन सब की ध्वनि-पावाज को (सुन कर) तथा लोलापूर्वक चलती हुई स्त्रियों की चाल से उत्पन्न (ध्वनि को) एवं तरुणी रमणियों के हास्य की, बोलों की तथा स्वर-घोलनायुक्त मधुर तथा सुन्दर आवाज को (सुन कर) और स्नेही जनों द्वारा भाषित प्रशंसा-वचनों को एवं इसी प्रकार के मनोज्ञ एवं सुहावने वचनों को (सुन कर) उनमें साधु को प्रासक्त नहीं होना चाहिए, राग नहीं करना चाहिए, गाद्ध-अप्राप्ति की अवस्था में उनकी प्रापि की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए, उनके लिए स्व-पर का परिहनन नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तुष्ट-प्राप्ति होने पर प्रसन्न नहीं होना चाहिए, हँसना नहीं चाहिए, ऐसे शब्दों का स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए।
___इसके अतिरिक्त श्रोत्रेन्द्रिय के लिए अमनोज्ञ--मन में अप्रीतिजनक एवं पापक-अभद्र शब्दों को सुनकर रोष (द्वेष) नहीं करना चाहिए।
(प्र.) वे शब्द-कौन से-किस प्रकार के हैं ? (उ.) आक्रोश-तू मर जा इत्यादि वचन, परुष–अरे मूर्ख, इत्यादि वचन, खिसना