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________________ २५८] [प्रश्नम्बाकरणसूत्र :श्र. २,अ. ५ चतुर्थ भावना : रसनेन्द्रिय-संयम १६८-चउत्थं—जिभिदिएण साइय रसाणि मणुण्णभद्दगाई। कि ते ? उग्गाहिमविविहपाण-भोयण-गुलकय-खंडकय-तेल्ल-घयकय- भक्खेसु-बहुविहेसु लवणरससंजुत्तेसु महुमंस-बहुप्पगारमज्जिय-णिट्ठाणगदालियंब- सेहंब-दुद्ध-दहि-सरय- मज्ज-वरवारुणी-सीहु-काविसायणसायट्ठारस-बहुप्पगारेसु भोयणेसु य मणुण्ण-वण्ण-गंध-रस- फास-बहुदन्वसंभिएसु अण्णेसु य एबमाइएसु रसेसु मणुण्णभद्दएसु ण तेसु समणेण सज्जियव्वं जाव ण सइंच मइंच तत्थ कुज्जा। पुणरवि जिभिदिएण साइय रसाइं अमुण्णपावगाईकि ते? अरस-विरस-सीय-लुक्ख-णिज्जप्प-पाण-भोयणाई दोसीण-वावण्ण-कुहिय-पूइय-प्रमणुप्ण-विणट्ठप्पसूय-बहुदुनिभगंधियाइं तित्त-कडुय-कसाय-अंबिल-रस-लिडणीरसाइं, अण्णेसु य एवमाइएसु रसेसु प्रमणुण्ण-पावगेसु ण तेसु समणेण रूसियव्वं जाव चरेज्ज धम्मं । १६८-रसना-इन्द्रिय से मनोज्ञ एवं सुहावने रसों का प्रास्वादन करके (उनमें आसक्त नहीं होना चाहिए)। (प्र०) वे रस क्या-कैसे हैं ? (उ०) घी-तैल आदि में डुबा कर पकाए हुए खाजा आदि पकवान, विविध प्रकार के पानक-द्राक्षापान आदि, गुड़ या शक्कर के बनाए हुए, तेल अथवा घी से बने हुए मालपूवा आदि वस्तुओं में, जो अनेक प्रकार के नमकीन आदि रसों से युक्त हों, मधु, मांस, बहुत प्रकार की मज्जिका, बहुत व्यय करके बनाया गया, दालिकाम्ल-खट्टी दाल, सैन्धाम्ल-रायता आदि, दूध, दही, सरक, मद्य, उत्तम प्रकार की वारुणी, सीधू तथा पिशायन नामक मदिराएँ, अठारह प्रकार के शाक वाले ऐसे अनेक प्रकार के मनोज्ञ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त अनेक द्रव्यों से निर्मित भोजन में तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ एवं सुहावने-लुभावने रसों में साधु को मासक्त नहीं होना चाहिए, यावत् उनका स्मरण तथा विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिह्वा-इन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने रसों का, प्रास्वाद करके (रोष मादि नहीं करना चाहिए)। (प्र०) वे अमनोज्ञ रस कौन-से हैं ? (उ०) अरस- हींग आदि के संस्कार से रहित होने के कारण रसहीन, विरस-पुराना होने से विगतरस, ठण्डे, रूखे-विना चिकनाई के, निर्वाह के अयोग्य भोजन-पानी को तथा रात-वासी, व्यापन-रंग बदले हुए, सड़े हुए, अपवित्र होने के कारण अमनोज्ञ अथवा अत्यन्त विकृत हो चुकने के कारण जिनसे दुर्गन्ध निकल रही हो ऐसे तिक्त, कटु, कसैले, खट्टे, शेवालरहित पुराने पानी के समान एवं नीरस पदार्थों में तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ तथा अशुभ रसों में साधु को रोष धारण नहीं करना चाहिए यावत् संयतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करना चाहिए।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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