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कल्पनीय भिक्षा]
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अनिसृष्ट-अनेकों के स्वामित्व की वस्तु उन सबकी अनुमति के बिना दी जाए ।
उल्लिखित आहार सम्बन्धी दोषों में से अनेक दोष उद्गम-उत्पादना संबंधी दोषों में गभित हैं । तथापि अधिक स्पष्टता के लिए यहाँ उनका भी निर्देश कर दिया गया है । पूर्वोक्त दोषों में से किसी भी दोष से युक्त आहार सुविहित साधुओं के लिए कल्पनीय नहीं होता। कल्पनीय भिक्षा
१५९-अह केरिसयं पुणाइ कप्पइ ? जंतं एक्कारस-पिंडवायसुद्ध किणण-हणण-पयण-कयकारियाणुमोयण-णवकोडीहिं सुपरिसुद्ध, दसहि य दोसेहिं विप्पमुक्कं उग्गम-उप्पायणेसणाए सुद्ध, ववगय-चुयचवियचत्त-देहं च फासुयं ववगय-संजोग-मणिगालं विगयधूमं छट्ठाण णिमित्तं छक्कायपरिरक्खणट्ठा हणि हणि फासुएण भिक्खेणं वट्टियव्वं ।
१५९–प्रश्न–तो फिर किस प्रकार का आहार साधु के लिए ग्रहण करने योग्य है ?
उत्तर-जो आहारादि एकादश पिण्डपात से शुद्ध हो, अर्थात् आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पिण्डैषणा नामक प्रथम अध्ययन के ग्यारह उद्देशकों में प्ररूपित दोषों से रहित हो, जो खरीदना, हनन करना-हिंसा करना और पकाना, इन तीन क्रियाओं से कृत, कारित और अनुमोदन से निष्पन्न नौ कौटियों से पूर्ण रूप से शुद्ध हो, जो एषणा के दस दोषों से रहित हो, जो उद्गम और उत्पादनारूप एषणा अर्थात् गवेषणा और ग्रहणषणा रूप एषणादोष से रहित हो, जो सामान्य रूप से . निर्जीव हुए, जीवन से च्युत हो गया हो, आयुक्षय के कारण जीवनक्रियाओं से रहित हो, शरीरोपचय से रहित हो, अतएव जो प्रासुक-अचेतन हो चुका हो, जो आहार संयोग और अंगार नामक मण्डल-दोष से रहित हो, जो आहार की प्रशंसारूप धूम-दोष से रहित हो, जो छह कारणों में से किसी कारण से ग्रहण किया गया हो और छह कायों की रक्षा के लिए स्वीकृत किया गया हो, ऐसे प्रासुक आहारादि से प्रतिदिन सदा निर्वाह करना चाहिए।
विवेचन-पूर्व में बतलाया गया था कि किन-किन दोष वाली भिक्षा साधु के लिए ग्राह्य नहीं है । यह वक्तव्य भिक्षा सम्बन्धी निषेधपक्ष को मुख्यतया प्रतिपादित करता है । किन्तु जब तक निषेध के साथ विधिपक्ष को प्रदर्शित न किया जाय तब तक सामान्य साधक के लिए स्पष्ट मार्गदर्शन नहीं होता । अतएव यहाँ भिक्षा के विधिपक्ष का निरूपण किया गया है । यह निरूपण प्रश्न और उत्तर के रूप में है।
प्रश्न किया गया है कि यदि साधुनों को अमुक-अमुक दोष वाली भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए तो कैसी भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए?
उत्तर है आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कध के पिण्डैषणा नामक अध्ययन के ग्यारह उद्देशकों में कथित समस्त दोषों से रहित भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । इन उद्देशकों में आहार सम्बन्धी समस्त दोषों का कथन समाविष्ट हो जाता है । इस शास्त्र में भी उनका निरूपण किया जा चुका है । अतएव यहां पुनः उल्लेख करना अनावश्यक है ।
नवकोटिविशुद्ध आहार--साधु के निमित्त खरीदी गई, खरीदवाई गई और खरीद के लिए