________________
२४४]
[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. २, अ. ५
- विवेचन-पूर्व पाठ में बतलाया गया था कि आहार की सन्निधि करना अर्थात् संचय करना अपरिग्रही साधु को नहीं कल्पता, क्योंकि संचय परिग्रह है और यह अपरिग्रह धर्म से विपरीत है । प्रकृत पाठ में प्रतिपादित किया गया है कि भले ही संचय के लिए न हो, तत्काल उपयोग के लिए हो, तथापि सूत्र में उल्लिखित दोषों में से किसी भी दोष से दूषित हो तो भी वह पाहार, मुनि के लिए ग्राह्य नहीं है । इन दोषों का अर्थ इस प्रकार है
उद्दिष्ट-सामान्यतः किसी भी साधु के लिए बनाया गया। स्थापित-साधु के लिए रख छोड़ा गया। रचित–साधु के निमित्त मोदक आदि को तपा कर पुनःमोदक आदि के रूप में तैयार किया गया। पर्यवजात–साधु को उद्देश्य करके एक अवस्था से दूसरी अवस्था में बदला हुआ। प्रकीर्ण-धरती पर गिराते या टपकाते हुए दिया जाने वाला आहार । प्रादुष्करण-अन्धेरे में रक्खे आहार को प्रकाश करके देना। प्रामित्य-साधु के निमित्त उधार लिया गया आहार । मिश्रजात–साधु और गृहस्थ या अपने लिए सम्मिलित बनाया हुआ आहार । क्रीतकृत–साधु के लिए खरीद कर बनाया गया। प्राभृत–साधु के निमित्त अग्नि में ईंधन डालकर उसे प्रज्वलित करके अथवा ईंधन निकाल कर अग्नि मन्द करके दिया गया आहार । दानार्थ-दान के लिए बनाया गया। पुण्यार्थ—पुण्य के लिए बनाया गया। श्रमणार्थ-श्रमण पांच प्रकार के माने गए हैं—(१) निर्ग्रन्थ (२) शाक्य-बौद्धमतानुयायी (३) तापस-तपस्या को विशेषता वाले (४) गेरुक-गेरुया वस्त्र धारण करने वाले और (५) आजीविक–गोशालक के अनुयायी। इन श्रमणों के लिए बनाया गया आहार श्रमणार्थ कहलाता है। वनीपकार्थ-भिखारियों के अर्थ बनाया गया । टीकाकार ने वनीपक का पर्यायवाची शब्द 'त' क' लिखा है। पश्चात्कर्म-दान के पश्चात् वर्तन धोना आदि सावद्य क्रिया वाला आहार । पुरःकर्म–दान से पूर्व हाथ धोना आदि सावध कर्म वाला आहार । नित्यकर्म-सदाव्रत की तरह जहाँ सदैव साधुओं को आहार दिया जाता हो अथवा प्रतिदिन एक घर से लिया जाने वाला पाहार । म्रक्षित-सचित्त जल आदि से लिप्त हाथ अथवा पात्र से दिया जाने वाला आहार । अतिरिक्त-प्रमाण से अधिक । मौखर्य--वाचालता-अधिक बोलकर प्राप्त किया जाने वाला। स्वयंग्राह-स्वयं अपने हाथ से लिया जाने वाला। प्राहृत-अपने गाँव या घर से साधु के समक्ष लाया गया। मृत्तिकालिप्त-मिट्टी आदि से लिप्त । आच्छेद्य-निर्बल से छीन कर दिया जाने वाला।