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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्र. २, अ. ५ अनुमोदित की गई, इसी प्रकार हिंसा करने, कराने और अनुमोदन करने से तैयार की गई, और पकाना, पकवाना तथा पकाने की अनुमोदना करने से निष्पन्न हुई भिक्षा अग्राह्य है । इनसे रहित भिक्षा ग्राह्य है। ___ एषणा एवं मंडल सम्बन्धी दोषों का वर्णन पहले किया जा चुका है ।
पाहारग्रहण के छह निमित्त साधु शरीरपोषण अथव रसनेन्द्रिय के आनन्द के अर्थ आहार ग्रहण नहीं करते । शास्त्र में छह कारणों में से कोई एक या अनेक कारण उपस्थित होने पर आहार ग्रहण करने का विधान किया गया है, जो इस प्रकार है
वेयण-वेयावच्चे ईरियट्ठाए य संजमट्ठाए ।
तह पाणवत्तियाए छठें पुण धम्मचिंताए । अर्थात्-(१) क्षुधावेदनीय कर्म की उपशान्ति के लिए (२) वैयावृत्य (प्राचार्यादि गुरुजनों की सेवा) का सामर्थ्य बना रहे, इस प्रयोजन के लिए (३) ईर्यासमिति का सम्यक् प्रकार से पालन करने के लिए (४) संयम का पालन करने के लिए (५) प्राणरक्षा-जीवननिर्वाह के लिए और (६) धर्मचिन्तन के लिए (पाहार करना चाहिए)।।
छह काय-पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावर और द्वीन्द्रियादि त्रस, ये छह काय हैं । समस्त संसारवर्ती जीव इन छह भेदों में गभित हो जाते हैं । अतएव षट्काय की रक्षा का अर्थ है–समस्त सांसारिक जीवों की रक्षा । इन की रक्षा के लिए और रक्षा करते हुए आहार कल्पनीय होता है।
१६०-जं पि य समणस्स सुविहियस्स उ रोगायंके बहुप्पकारंमि समुप्पण्णे वायाहिक-पित्तसिंभ-अइरित्तकुविय-तहसण्णिवायजाए व उदयपत्ते उज्जल-बल-विउल (तिउल) कक्खडपगाढदुक्खे प्रसुभकडुयफरुसे चंडफलविवागे महब्भये जोवियंतकरणे सव्वसरीरपरितावणकरे ण कप्पइ तारिसे वि तह अप्पणो परस्स वा प्रोसहभेसज्जं भत्तापाणं च तं पि सण्णिहिकयं ।
१६०–सुविहित-आगमानुकूल चारित्र का परिपालन करने वाले साधु को यदि अनेक प्रकार के ज्वर आदि रोग और आतंक-जीवन को संकट या कठिनाई में डालने वाली व्याधि उत्पन्न हो जाए, वात, पित्त या कफ का अतिशय प्रकोप हो जाए, अथवा सन्निपात-उक्त दो या तीनों दोषों का एक साथ प्रकोप हो जाए और इसके कारण उज्ज्वल अर्थात् सुख के लेशमात्र से रहित, प्रबल विपुलदीर्घकाल तक भीगने योग्य (या त्रितुल–तीनों योगों को तोलने वाले कष्टमय बना देने वाले), कर्कश-अनिष्ट एवं प्रगाढ़ अर्थात् अत्यन्त तीव्र दुःख उत्पन्न हो जाए और वह दुःख अशुभ या कटक द्रव्य के समान असुख--अनिष्ट रूप हो, परुष-कठोर हो, दुःखमय दारुण फल वाला हो, महान् भय उत्पन्न करने वाला हो, जीवन का अन्त करने वाला और समग्र शरीर में परिताप उत्पन्न करने वाला हो, तो ऐसा दुःख उत्पन्न होने की स्थिति में भी स्वयं अपने लिए अथवा दूसरे साधु के लिए औषध, भैषज्य, पाहार तथा पानी का संचय करके रखना नहीं कल्पता है।
विवेचन-पूर्ववर्ती पाठ में सामान्य अवस्था में लोलुपता आदि के कारण आहारादि के संचय करने का निषेध किया गया था और प्रस्तुत पाठ में रोगादि की अवस्था में भी सन्निधि करने का निषेध किया गया है । यहाँ रोग के अनेक विशेषणों द्वारा उसकी तीव्रतमता प्रदर्शित की गई है । कहा