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प्रथम अध्ययन : अहिंसा
संवरद्वारों की महिमा
१०६ - ताणि उ इमाणि सुव्वय ! महव्वयाइं लोयहियसव्वयाइं सुयसागर - देसियाई तवसंजम महत्वयाइं सीलगुणवरव्वयाई सच्चज्जवव्वयाइं णरय- तिरिय- मणुय-देवगड-विवज्जगाई सव्वजिणसासणगाई कम्मरयविदारगाई भवसयविणासगाई दुहसयविमोयणगाई सुहस्यपवत्तणगाई कापुरिसदुरुत्तरा सप्पुरिसणिसेवियाई णिव्वाणगमणसग्गप्पयाणगाई संवरदाराई पंच कहियाणि उ
भगवया ।
१०६ - श्री सुधर्मा स्वामी ने अपने अन्तेवासी जम्बू स्वामी से कहा - हे सुव्रत ! अर्थात् उत्तम व्रतों के धारक और पालक जम्बू ! जिनका पूर्व में नामनिर्देश किया जा चुका है ऐसे ये महाव्रत समस्त लोक के लिए हितकारी हैं या लोक का सर्व हित करने वाले हैं (अथवा लोक में धैर्य - आश्वासन प्रदान करने वाले हैं ।) श्रुतरूपी सागर में इनका उपदेश किया गया है । ये तप और संयमरूप व्रत हैं या इनमें तप एवं संयम का व्यय – क्षय नहीं होता है । इन महाव्रतों में शील का और उत्तम गुणों का समूह सन्निहित है । सत्य और आर्जव — ऋजुता - सरलता - निष्कपटता इनमें प्रधान है । अथवा इनमें सत्य और आर्जव का व्यय नहीं होता है । ये महाव्रत नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति से बचाने वाले हैं - मुक्तिप्रदाता हैं । समस्त जिनों - तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट हैं - सभी ने इनका उपदेश दिया है । कर्मरूपी रज का विदारण करने वाले अर्थात् क्षय करने वाले हैं । सैकड़ों भवों - जन्ममरणों का अन्त करने वाले हैं । सैकड़ों दुःखों से बचाने वाले हैं और सैकड़ों सुखों में प्रवृत्त करने वाले हैं। ये महाव्रत कायर पुरुषों के लिए दुस्तर हैं, अर्थात् जो पुरुष भीरु हैं, जिनमें धैर्य और दृढ़ता नहीं है, वे इनका पूरी तरह निर्वाह नहीं कर सकते । सत्पुरुषों द्वारा सेवित हैं, अर्थात् धीर-वीर पुरुषों ने इनका सेवन किया है ( सेवन करते हैं और करेंगे)। ये मोक्ष में जाने के मार्ग हैं, स्वर्ग में पहुँचाने वाले हैं। इस प्रकार के ये महाव्रत रूप पाँच संवरद्वार भगवान् महावीर कहे हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में संवरद्वारों का माहात्म्य प्रकट किया गया है, किन्तु यह माहात्म्य केवल स्तुतिरूप नहीं है । यह संवरद्वारों के स्वरूप और उनके सेवन करने के फल का वास्तविक निदर्शन कराने वाला है। सूत्र का अर्थ स्पष्ट है, तथापि किंचित् विवेचन करने से पाठकों को सुविधा होगी।
संवरद्वारों को महाव्रत कहा गया है। श्रावकों के पालन करने योग्य व्रत अणुव्रत कहलाते हैं । व्रतों की अपेक्षा महान् होने से इन्हें महाव्रत कहा गया है । अणुव्रतों में हिंसादि पापों का पूर्णतया त्याग नहीं होता - एक मर्यादा रहती है किन्तु महाव्रत कृत, कारित और अनुमोदना रूप तीनों करणों से तथा मन, वचन और काय रूप तीनों योगों से पालन किए जाते हैं । इनमें हिंसा आदि का पूर्ण त्याग किया जाता है, अतएव ये महाव्रत कहलाते हैं ।