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संवरद्वार ]
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प्रथम गाथा में प्रयुक्त 'प्रणुपुव्वीए' पद से यह प्रकट किया गया है कि संवरद्वारों की प्ररूपणा अनुक्रम से की जाएगी । अनुक्रम द्वितीय गाथा में स्पष्ट कर दिया गया है। प्रथम संवरद्वार अहिंसा है, दूसरा सत्य, तीसरा दत्त (प्रदत्तादानत्याग), चौथा ब्रह्मचर्य और पाँचवां अपरिग्रहत्व है । इनमें हिंसा को प्रथम स्थान दिया गया है, क्योंकि अहिंसा प्रधान और मूल व्रत है । सत्यादि चारों व्रत हिंसा की रक्षा के लिए हैं। नियुक्तिकार ने कहा है
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rai इक्कं चिय जिणवरेहिं सव्वेहिं । पाणाइवाय वेरमणमवसेसा
तस्स रक्खट्ठा ॥
अर्थात् समस्त तीर्थंकर भगवन्तों ने एक प्राणातिपातविरमणव्रत का ही कथन किया है । शेष (चार) व्रत उसी की रक्षा के लिए हैं ।
असत्य, चौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह स्वहिंसा और पर हिंसा के भी कारण होते हैं, अतएव सभी हिंसास्वरूप हैं ।
हिंसा को 'तसथावर - सव्वभूय खेमकरी' कह कर उसकी असाधारण महिमा प्रकाशित की है | अहिंसा प्राणीमात्र के लिए मंगलमयी है, सब का क्षेम करने वाली है । हिंसा पर ही जगत् टिका है ।