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________________ अहिंसा भगवती के साठ नाम] [१६१ संवर समस्त हितों के प्रदाता हैं और वीतरागप्ररूपित शास्त्रों में इनका उपदेश किया गया है, अतएव संशय के लिए कोई अवकाश नहीं है। - ये महाव्रत तप और संयमरूप हैं । इस विशेषण द्वारा सूचित किया गया है कि इन महाव्रतों से संवर और निर्जरा--दोनों की सिद्धि होती है, अर्थात् नवीन कर्मों का आना भी रुकता है और पूर्ववद्ध कर्मों की निर्जरा भी होती है । संयम संवर का और तप निर्जरा का कारण है । मुक्तिप्राप्ति के लिए संवर और निर्जरा दोनों अपेक्षित हैं । इसी तथ्य को स्फुट करने के लिए इन्हें कर्म-रजविदारक अर्थात कर्मरूपी रज को नष्ट करने वाले हैं, ऐसा कहा गया है। महाव्रतों को भवशतविनाशक भी कहा है, जिसका शाब्दिक अर्थ सैकड़ों भवों को नष्ट करने वाला है। किन्तु 'शत' शब्द यहाँ सौ संख्या का वाचक न होकर विपुलसंख्यक अर्थ का द्योतक समझना चाहिए अर्थात् इसकी आराधना से बहुत-से भवों-जन्ममरणों का अन्त आ जाता है। इनकी आराधना से जीव सैकड़ों दुःखों से बच जाता है और सैकड़ों प्रकार के सुखों को प्राप्त करने में समर्थ होता है, स्पष्ट है। महाव्रतरूप संवर की आराधना कायर पुरुष नहीं कर सकते, सत्पुरुष ही कर सकते हैं। जिनका मनोबल बहुत हीन दशा में है, जो इन्द्रियों के दास हैं, जो मन पर नियंत्रण नहीं रख सकते और जो धैर्यहीन हैं, सहनशील नहीं हैं, वे प्रथम तो महाव्रतों को धारण ही नहीं कर सकते । कदाचित् भावनावश धारण कर लें तो उनका यथावत् निर्वाह नहीं कर पाते । थोड़े से प्रलोभन से या कष्ट आने पर भ्रष्ट हो जाते हैं अथवा साधुवेष को धारण किए हुए ही असाधुजीवन व्यतीत करते हैं। किन्तु जो सत्त्वशाली पुरुष दृढ़ मनोवृत्ति वाले, परीषह और उपसर्ग का वीरतापूर्वक सामना करने वाले एवं मन तथा इन्द्रियों को अपने विवेक के अंकुश में रखते हैं, ऐसे सत्पुरुष इन्हें अंगीकार करके निश्चल भाव से पालते हैं। महाव्रतों या संवरों का वर्णन प्रत्येक को पाँच-पाँच भावनाओं सहित किया जाएगा। कारण यह है कि भावनाएँ एक प्रकार से व्रत का अंग हैं और उनका अनुसरण करने से व्रतों के पालन में सरलता होती है, सहायता मिलती है और व्रत में पूर्णता आ जाती है। भावनाओं की उपेक्षा करने से व्रत-पालन में बाधा आती है । अतएव व्रतधारी को व्रत की भावनाओं को भलीभाँति समझ कर उनका यथावत् पालन करना चाहिए। इस तथ्य को सूचित करने के लिए 'सभावणानो' पद का प्रयोग किया गया है। अहिंसा भगवती के साठ नाम १०७-तत्थ पढमं अहिंसा जा सा सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स भवइ दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा १ णिव्वाणं २ णिव्वुई ३ समाही ४ सत्ती ५ कित्ती ६ कंती ७ रई य ८ विरई य ९ सुयंग १० तित्ती ११ दया १२ विमुत्ती १३ खंती १४ सम्मत्ताराहणा १५ महंती १६ बोही १७ बुद्धी १८ धिई १९ समिद्धी २० रिद्धी २१ विद्धी २२ ठिई २३ पुट्ठी २४ णंदा २५ भद्दा २६ विसुद्धी २७ लद्धी २८ विसिट्ठदिट्ठी २९ कल्लाणं ३० मंगलं ३१ पमोप्रो ३२ विभूई ३३ रक्खा ३४ सिद्धावासो ३५ प्रणासवो ३६ केवलीण ठाणं ३७ सिवं ३८ समिई ३९ सील ४० संजमो त्ति य ४१ सीलपरिघरो
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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