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विविध कलाएँ भी परिग्रह के लिये ]
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मिश्रित न कर दे, इस आशंका के कारण निश्चिन्त होकर भोजन नहीं कर सकते । सोते समय कोई मार न डाले, इस भय से आराम से सो नहीं सकते। उन्हें प्रतिक्षण आशंका रहती है । कहावत हैकाया को नहीं, माया को डर रहता है । जिसका परिवार - रूप परिग्रह विशाल होता है, उन्हें भी नाना प्रकार की परेशानियाँ सताती रहती हैं । परिग्रह से उत्पन्न होने वाले विविध प्रकार के मानसिक संक्लेश अनुभवसिद्ध हैं और समग्र लोक इनका साक्षी है । अतएव शास्त्रकार ने परिग्रह को अनन्त संक्लेश का कारण कहा है।
परिग्रह केवल संक्लेश का ही कारण नहीं, वह 'सव्वदुक्ख संनिलयणं' भी है, अर्थात् जगत् के समस्त दुःखों का घर है । एक आचार्य ने यथार्थ ही कहा है
संयोगमूला जीवेम प्राप्ता दुःखपरम्परा ।
अनादि काल से आत्मा के साथ दुःखों की जो परम्परा चली आ रही है - एक दुःख का अन्त होने से पहले ही दूसरा दुःख आ टपकता है, दु:ख पर दुःख आ पड़ते हैं और भव-भवान्तर में यही दुःखों का प्रवाह प्रवहमान है, इसका मूल कारण संयोग है, अर्थात् पर-पदार्थों के साथ अपने आपको जोड़ना है । यद्यपि कोई भी पर-पदार्थ आत्मा से जुड़ता नहीं, तथापि ममताग्रस्त पुरुष अपने ममत्व के धागे से उन्हें जुड़ा हुआ मान लेता है— ममता के बन्धन से उन्हें अपने साथ बाँधता है । परिणाम यह होता है कि पदार्थ तो बँधते नहीं, प्रत्युत वह बांधने वाला स्वयं ही बँध जाता है । अतएवं जो बन्धन में नहीं पड़ना चाहते, उन्हें बाह्य पदार्थों के साथ संयोग स्थापित करने की कुबुद्धि का परित्याग करना चाहिए । इसी तथ्य को प्रकट करने के लिए शास्त्रकार ने श्रमणों को 'संजोगा विप्पक्कस' विशेषण प्रदान किया है । अर्थात् श्रमण अनगार संयोग से विप्रमुक्त - पूर्णरूप से मुक्त होते हैं ।
जब भ्रमण परिग्रह से पूरी तरह मुक्त होते हैं, यहाँ तक कि अपने शरीर पर भी ममत्वभाव से रहित होते हैं तो उनके उपासकों को भी यही श्रद्धा रखनी चाहिए कि परिग्रह अनर्थमूल होने से त्याज्य है । इस प्रकार की श्रद्धा यदि वास्तविक होगी तो श्रमणोपासक अपनी परिस्थिति का पर्यालोचन करके उसकी एक सीमा निर्धारित अवश्य करेगा अथवा उसे ऐसा करना चाहिए । यही एक मात्र सुख और शान्ति का उपाय है । वर्त्तमान जीवन - सम्बन्धी सुख-शान्ति और शाश्वत आत्महित इसी में है ।
मूल पाठ में बहत्तर कलाओं और चौसठ महिलागुणों का निर्देश किया गया है । कलाओं के नाम अनेक आगमों में उल्लिखित हैं, उनके नामों में भी किंचित् भिन्नता दिखाई देती है । वस्तुतः कलाओं की कोई संख्या निर्धारित नहीं हो सकती। समय-समय पर उनकी संख्या और स्वरूप बदलता रहता है । आधुनिक काल में अनेक नवीन कलाओं का आविष्कार हुआ है । प्राचीन काल में जो कलाएँ प्रचलित थीं, उनका वर्गीकरण बहत्तर भेदों में किया गया था । उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
१. लेखकला - लिखने की कला, ब्राह्मी आदि अठारह प्रकार की लिपियों को लिखने का विज्ञान |
२. गणितकला - गणना, संख्या की जोड़ बाकी आदि का ज्ञान ।