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________________ १५.] [प्रामपाकरमसूत्र . १, *. ५ ...विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में परिग्रह के लिए किए जाने वाले विविध प्रकार के कार्यों का उल्लेख किया गया है। जिन कार्यों का सूत्र में साक्षात् वर्णन है, उनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत से कार्य हैं, जिन्हें परिग्रह की प्राप्ति, वृद्धि एवं संरक्षण के लिए किया जाता है। अनेकानेक कार्य जीवनपर्यन्त निरन्तर करते रहने पर भी प्राणियों को परिग्रह से तृप्ति नहीं होती। जो परिग्रह अधिकाधिक तृष्णा, लालसा, आसक्ति और असन्तुष्टि की वृद्धि करने वाला है, उससे तृप्ति अथवा सन्तुष्टि प्राप्त भो कैसे हो सकती है ! जीवनपर्यन्त उसे बढ़ाने के लिए जुटे रहने पर भी, जीवन का अन्त आ जाता है परन्तु लालसा का अन्त नहीं आता। . ___ तो क्या परिग्रह के पिशाच से कभी छुटकारा मिल ही नहीं सकता ? ऐसा नहीं है। जिनकी विवेकबुद्धि जागृत हो जाती है, जो यथार्थ वस्तुस्वरूप को समझ जाते हैं, परिग्रह की निस्सारता का भान जिन्हें हो जाता है और जो यह निश्चय कर लेते हैं कि परिग्रह सुख का नहीं, दुःख का कारण है, इससे हित नहीं, अहित ही होता है, यह आत्मा की विशुद्धि का नहीं, मलीनता का कारण है, इससे आत्मा का उत्थान नहीं, पतन होता है, यह जीवन को भी अनेक प्रकार की यातनाओं से परिपूर्ण बना देता है, अशान्ति एवं आकुलता का जनक है, वे महान् पुरुष परिग्रह के पिशाच से अवश्य मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं । . मूलपाठ में ही कहा गया है-परिग्रह अर्थात् ममत्वभाव अनन्त है-उसका कभी और कहीं अन्त नहीं पाता । वह अशरण है अर्थात् शरणदाता नहीं है । जब मनुष्य के जीवन में रोगादि उत्पन्न हो जाते हैं तो परिग्रह के द्वारा उनका निवारण नहीं हो सकता। चाहे पिता, पुत्र, पत्नी आदि सचित्त परिग्रह हो, चाहे धन-वैभव आदि अचित्त परिग्रह हो, सब एक ओर रह जाते हैं। रोगी को कोई शरण नहीं दे सकते । यहाँ नमिराज के कथानक का अनायास स्मरण हो पाता है। उन्हें व्याधि उत्पन्न होने पर परिग्रह की अकिंचित्करता का भान हुआ, उनका विवेक जाग उठा और उसी समय वे भावतः परिग्रहमुक्त हो गए । अतएव शास्त्रकार ने परिग्रह को दुरन्त कहा है। तात्पर्य यह है कि परिग्रह का अन्त तो आ सकता है किन्तु कठिनाई से आता है । - परिग्रह का वास्तविक स्वरूप प्रकाशित करने के लिए शास्त्रकार ने उसे 'अणंतं असरणं दुरंत' कहने के साथ 'अधुवमणिच्चं, प्रसासयं, पावकम्मणेमं, विणासमूलं, वहबंधपरिकिलेसबहुलं, अणंतसंकिलेसकारणं, सव्वदुक्खसंनिलयणं' इत्यादि विशेषणों द्वारा अभिहित किया है । अकथनीय यातनाएँ झेल कर--प्राणों को भी संकट में डालकर कदाचित् परिग्रह प्राप्त कर भी लिया तो वह सदा ठहरता नहीं, कभी भी नष्ट हो जाता है । वह अनित्य है- सदा एक-सा रहता नहीं, अचल नहीं है-अशाश्वत है, समस्त पापकर्मों का मूल कारण है, यहाँ तक कि जीवन-प्राणों के विनाश का कारण है । बहुत वार परिग्रह की बदौलत मनुष्य को प्राणों से हाथ धोना पड़ता हैचोरों-लुटेरों-डकैतों के हाथों मरना पड़ता है और पारमार्थिक हित का विनाशक तो है ही। ___लोग समझते हैं कि परिग्रह सुख का कारण है किन्तु ज्ञानी जनों की दृष्टि में वह वध, बन्ध आदि नाना प्रकार के क्लेशों का कारण होता है। परिग्रही प्राणी के मन में सदैव अशान्ति, आकुलता, बेचैनी, उथल-पुथल एवं आशंकाएँ बनी रहती हैं । परिग्रह के रक्षण की घोर चिन्ता दिन-रात उन्हें बेचैन बनाए रहती है । वे स्वजनों और परिजनों से भी सदा भयभीत रहते हैं। भोजन में कोई विष
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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