SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अब्रह्मसेवी देवादि ] [ ११५ इसे 'मनोज' भी कहते हैं । उत्पन्न होते ही मन को मथ डालता है, इस कारण इसका एक नाम 'मन्मथ' भी है । मन में उद्भूत होने वाला यह विकार शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि में बाधक तो है ही, उसके लिए की जाने वाली साधना-आराधना का भी विघातक है । यह चारित्र को पनपने नहीं देता । संयम में न उपस्थित करता है । प्रथम तो सम्यक् चारित्र को उत्पन्न ही नहीं होने देता, फिर उत्पन्न हुआ चारित्र भी इसके कारण नष्ट हो जाता है । इसकी उत्पत्ति के कारणों की समीक्षा करते हुए शास्त्रकार ने स्पष्ट किया है कि इसका जन्म दर्प से होता है । इसका श्राशय यह है कि जब इन्द्रियाँ बलवान् बन जाती हैं और शरीर पुष्ट होता है तो कामवासना को उत्पन्न होने का अवसर मिलता है । यही कारण है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य की आराधना करने वाले साधक विविध प्रकार की तपश्चर्या करके अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित रखते हैं और अपने शरीर को भी बलिष्ठ नहीं बनाते । इसके लिए जिह्व न्द्रिय पर काबू रखना और पौष्टिक आहार का वर्जन करना अनिवार्य है । तीस नामों में एक नाम 'संसर्गी' भी आया है । इससे ध्वनित है कि बचने के लिए साधक को विरोधी वेद वाले के संसर्ग से दूर रहना चाहिए। नर के नारी के साथ नर का अमर्यादा संसर्ग कामवासना को उत्पन्न करता है । ब्रह्मचर्य के पाप से साथ नारी का और ब्रह्मचर्य को मोह, विग्रह, विघात, विभ्रम, व्यापत्ति, बाधनापद आदि जो नाम दिये गए हैं उनसे ज्ञात होता है कि यह विकार मन में विपरीत भावनाएँ उत्पन्न करता है। काम के वशीभूत हुआ प्राणी मूढ बन जाता है । वह हित-अहित को, कर्त्तव्य - प्रकर्त्तव्य को या श्रेयस् प्रश्रेयस् को यथार्थ रूप में समझ नहीं पाता । हित को अहित और अहित को हित मान बैठता है । उसका विवेक नष्ट हो जाता है । उसके विचार विपरीत दिशा पकड़ लेते हैं । उसके शील- सदाचार-संयम का विनाश हो जाता है । 'विग्रहिक' और 'वैर' नामों से स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य लड़ाई-झगड़ा, युद्ध, कलह आदि का कारण है । प्राचीनकाल में कामवासना के कारण अनेकानेक युद्ध हुए हैं, जिनमें हजारों-लाखों मनुष्यों का रक्त बहा है । शास्त्रकार स्वयं आगे ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं । आधुनिक काल में भी ब्रह्मसेवन की बदौलत अनेक प्रकार के लड़ाई-झगड़े होते ही रहते हैं । हत्याएँ भी होती रहती हैं । इस प्रकार उल्लिखित तीस नाम जहाँ ब्रह्मचर्य के विविध रूपों को प्रकट करते हैं, वहीं उससे होने वाले भीषण प्रनर्थों को भी सूचित करते हैं । अब्रह्मसेवी देवादि ८२ - तं च पुण णिसेवंति सुरगणा समच्छरा मोहमोहियमई श्रसुर- भुयग- गरुल- विज्जु - जलणदीव - उदहि-दिसि-पवण थणिया, प्रणवण्णिय-पणवण्णिय-इसिवाइय-भूयवाइय-कंदिय- महाकंदिय-कहंडपयंगदेवा, पिसाय - भूय- जक्ख- रक्खस- कण्णर- किंपुरिस-महोरग-गंधव्वा, तिरिय-जोइस- विमाणवासिमणुयगणा, जलयर-थलयर- खयरा, मोयपडिबद्धचित्ता प्रवितण्हा कामभोगतिसिया, तण्हाए बलवईए महई समभिभूया गढिया य श्रइमुच्छिया य प्रबंभे उस्सण्णा तामसेण भावेण प्रणुम्मुक्का दंसणचरितमोहस्स पंजरं पिव करेंति प्रण्णोष्णं सेवमाणा ।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy