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________________ ९४] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ. ३ वाले, निर्लज्ज लोग मानवों को वन्दो बनाकर अथवा गायों आदि को ग्रहण करके ले जाते हैं। दारुण मति वाले, कृपाहीन-निर्दय या निकम्मे-अपने आत्मीय जनों का भी घात करते हैं। वे गृहों की सन्धि को छेदते हैं अर्थात् सेंध लगाते हैं। जो परकीय द्रव्यों से विरत-विमुख-निवृत्त नहीं हैं ऐसे निर्दय बुद्धि वाले (वे चोर) लोगों के घरों में रक्खे हुए धन, धान्य एवं अन्य प्रकार के समूहों को हर लेते हैं। विवेचन--प्रकृत पाठ में यह प्रदर्शित किया गया है कि पराये धन को लूटने वाले अथवा सेंध आदि लगा कर चोरी करने वाले लोग वही होते हैं, जो निर्दय–अनुकम्पाहीन होते हैं और जिन्हें अदत्तादान के परिणामस्वरूप परलोक में होने वाली दुर्दशाओं की परवाह नहीं है। दयावान् और परलोक से डरने वाले विवेकी जन इस इह-परलोक-दुःखप्रद कुकृत्य में प्रवृत्त नहीं होते। प्राचीन काल में भी जन-वस्तियों की अनेक श्रेणियां उनकी हैसियत अथवा विशिष्टताओं के आधार पर निर्धारित की जाती थीं। उनमें से कई नामों का प्रस्तुत पाठ में उल्लेख हुआ है, जिनका प्राशय इस प्रकार है ग्राम-गांव-वह छोटी वस्ती जहाँ किसानों की बहुलता हो। आकर-जहां सुवर्ण, रजत, तांबे आदि की खाने हों। नगर-नकर-कर अर्थात् चुंगी जहाँ न लगती हो, ऐसी वस्ती। खेड---खेट–धूल के प्राकार से वेष्टित स्थान—वस्ती। कब्बड-कर्बट–जहाँ थोड़े मनुष्य रहते हों-कुनगर । मडम्ब-जिसके आसपास कोई गांव-वस्ती न हो। द्रोणमुख-जहाँ जलमार्ग से और स्थलमार्ग से जाया जा सके ऐसी वस्ती । पत्तन-पाटन–जहाँ जलमार्ग से अथवा स्थलमार्ग से जाया जाए। किसी-किसी ने पत्तन का अर्थ रत्नभूमि भी किया है। अाश्रम-जहाँ तापसजनों का निवास हो। निगम-जहाँ वणिक्जन-व्यापारी बहुतायत से निवास करते हों । जनपद--देश-प्रदेश-अंचल। ६९-तहेव केई अदिण्णादाणं गवेसमाणा कालाकालेसु संचरंता चियकापज्जलिय-सरस-दर-दड्ड कड्डियकलेवरे रुहिरलितवयण-अक्खय-खाइयपोय-डाइणिभमंत-भयंकरं जंबुयक्खिक्खियंते घूयकयघोरसद्दे वेयालुट्ठिय-णिसुद्ध-कहकहिय-पहसिय-बोहणग-णिरभिरामे अइदुन्भिगंध-बीभच्छदरिसणिज्जे सुसाणवण-सुण्णघर-लेण-अंतरावण-गिरिकंदर-विसमसावय-समाकुलासु वसहीसु किलिस्संता सीयातव-सोसियसरीरा दड्ढच्छवी णिरयतिरिय-भवसंकड-दुक्ख-संभारवेयणिज्जाणि पावकम्माणि संचिणंता, दुल्लहभक्खण्ण-पाणभोयणा पिवासिया झुझिया किलंता मंस-कुणिमकंदमूल-जं किंचिकयाहारा उम्विग्गा उप्पुया असरणा अडवीवासं उर्वति वालसय-संकणिज्जं । ६९-इसी प्रकार कितने ही (चोर) अदत्तादान की गवेषणा–खोज करते हुए काल और अकाल अर्थात् समय और कुसमय–अर्धरात्रि आदि विषम काल, में इधर-उधर भटकते हुए ऐसे श्मशान
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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