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________________ प्रामादि लूटने वाले ] जहाजी व्यापारियों द्वारा सेवित है, जो कलिकाल-अन्तिम युग के अन्त अर्थात् प्रलयकाल के कल्प के समान है, जिसका पार पाना कठिन है, जो गंगा आदि महानदियों का अधिपति-नदीपति होने के कारण अत्यन्त भयानक है, जिसके सेवन में बहुत ही कठिनाइयाँ होती हैं या जिसमें यात्रा करना अनेक संकटों से परिपूर्ण है, जिसमें प्रवेश पाना भी कठिन है, जिसे पार करना-किनारे पहुँचना भी कठिन है, यहाँ तक कि जिसका आश्रय लेना भी दुःखमय है, और जो खारे पानी से परिपूर्ण होता है। ऐसे समुद्र में परकीय द्रव्य के अपहारक-डाकू ऊँचे किए हुए काले और श्वेत झंडों वाले, अति-वेगपूर्वक चलने वाले, पतवारों से सज्जित जहाजों द्वारा आक्रमण करके समुद्र के मध्य में जाकर सामुद्रिक व्यापारियों के जहाजों को नष्ट कर देते हैं। विवेचन-इस पाठ में समुद्र का वर्णन काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है। कभी-कभी सागर शान्त-प्रशान्त दृष्टिगोचर होता है किन्तु किस क्षण वह भंयकर रूप धारण कर लेगा, यह निश्चय करना कठिन है। आधुनिक काल में जब मौसम, आँधी-तूफान आदि को पहले ही सूचित कर देने वाले अनेकविध यन्त्र आविष्कृत हो चके हैं, और जलयान भी अत्यधिक क्षमत हो चुके हैं, तब भी अनेकों यान डूबते रहते हैं। तब प्राचीन काल में उत्पातसूचक यन्त्रों के अभाव में और यानों की भी इतनी क्षमता के अभाव में समुद्रयात्रा कितनी संकटपरिपूर्ण होती होगी, यह कल्पना करना कठिन नहीं है। यही कारण है कि समुद्रयात्रा प्रारम्भ करने के पूर्व शुभ दिन, तिथि, नक्षत्र आदि देखने के साथ अनेकानेक देवी-देवताओं की पूजा-अर्चा की जाती थी, क्योंकि यह माना जाता था कि यात्रा में व्यन्तर देव भी विविध प्रकार के विघ्न उपस्थित करते हैं। धन के लोभ से प्रेरित होकर वणिक्-जन फिर भी समुद्रयात्रा करते थे और एक देश का माल दूसरे देश में ले जाकर बेचते थे। _प्रस्तुत पाठ से स्पष्ट है कि समुद्रयात्रा में प्राकृतिक अथवा दैविक प्रकोप के अतिरिक्त भी एक भारी भय रहता था । वह भय मानवीय अर्थात् समुद्री लुटेरों का था। ये लुटेरे अपने प्राणों को संकट में डालकर केवल लूटमार के लिए ही भयंकर सागर में प्रवेश करते थे। वे नौकावणिकों को लूटते थे और कभी-कभी उनके प्राणों का भी अपहरण करते थे। इस पाठ में यही तथ्य प्ररूपित है। ग्रामादि लूटने वाले ६८-णिरणुकंपा णिरवयक्खा गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासम-णिगमजणवए य धणसमिद्धे हणंति थिरहियय-छिण्ण-लज्जा-बंदिग्गह-गोग्गहे य गिण्हंति दारुणमई णिक्किवा' णियं हणंति छिदंति गेहसंधि णिक्खित्ताणि य हरंति धणधण्णदव्वजायाणि जणवय-कुलाणं णिग्घिणमई परस्स दव्वाहि जे अविरया। ६८-जिनका हृदय अनुकम्पा-दया से शून्य है, जो परलोक की परवाह नहीं करते, ऐसे लोग धन से समृद्ध ग्रामों, आकरों, नगरों, खेटों, कर्बटों, मडम्बों, पत्तनों, द्रोणमुखों, आश्रमों, निगमों एवं देशों को नष्ट कर देते-उजाड़ देते हैं । और वे कठोर हृदय वाले या स्थिरहित-निहित स्वार्थ १. पाठान्तर-णिक्किया।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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