________________
प्रामादि लूटने वाले]
[९५ में फिरते हैं वहाँ चितामों में जलती हुई, रुधिर आदि से युक्त, अधजली एवं खींच ली गई लाशें पड़ी हैं, रक्त से लथपथ मृत शरीरों को पूरा खा लेने और रुधिर पी लेने के पश्चात् इधर-उधर फिरती हई डाकिनों के कारण जो अत्यन्त भयावह जान पड़ता है, जहाँ जम्बुक-गीदड खीं-खीं ध्वनि कर रहे हैं, उल्लुओं की डरावनी आवाज आ रही है, भयोत्पादक एवं विद्रप पिशाचों द्वारा ठहाका मार कर हँसने-अट्टहास करने से जो अतिशय भयावना एवं अरमणीय हो रहा है और जो तीव्र दुर्गन्ध से व्याप्त एवं घिनौना होने के कारण देखने से भीषण जान पड़ता है।
__ऐसे श्मशान-स्थानों के अतिरिक्त वनों में, सूने घरों में, लयनों-शिलामय गहों में, मार्ग में, बनी हुई दुकानों, पर्वतों की गुफाओं, विषम- ऊबड़-खाबड़ स्थानों और सिंह वाघ आदि हिंस्र प्राणियों से व्याप्त स्थानों में (राजदण्ड से बचने के उद्देश्य से) क्लेश भोगते हुए इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं। उनके शरीर की चमड़ी शीत और उष्ण से शुष्क हो जाती है, सर्दी-गर्मी की तीव्रता को सहन करने के कारण उनकी चमड़ी जल जाती है या चेहरे की कान्ति मंद पड़ जाती है। वे नरकभव में और तिर्यंच भव रूपी गहन वन में होने वाले निरन्तर दुःखों की अधिकता द्वारा भोगने योग्य पापकर्मों का संचय करते हैं, अर्थात् अदत्तादान का पाप इतना तीव्र होता है कि नरक की एवं तिथंच गति की तीव्र वेदनाओं को निरन्तर भोगे बिना उससे छुटकारा नहीं मिलता। ऐसे घोर पापकर्मों का वे संचय करते हैं। (जंगल में कभी यहां और कभी कहीं भटकते-छिपते रहने के कारण) उन्हें खाने योग्य अन्न और जल भी दुर्लभ होता है। कभी प्यास से पीडित रहते हैं, कभी-भूखे रहते हैं, थके रहते हैं और कभीकभी मांस, शव-मुर्दा, कभी कन्दमूल आदि जो कुछ भी मिल जाता है, उसी को खा लेते हैं उसी को गनीमत समझते हैं। वे निरन्तर उद्विग्न चिन्तित-घबराए हुए रहते हैं, सदैव उत्कंठित रहते हैं । उनका कोई शरण-रक्षक नहीं होता। इस प्रकार वे अटवीवास करते हैं-जंगल में रहते हैं, जिसमें सैंकड़ों सl (अजगरों, भेड़ियों, सिंह, व्याघ्र) आदि का भय बना रहता है अर्थात् जो विषैले और हिंसक जन्तुओं के कारण सदा शंकनीय बना रहता है ।
७०-अयसकरा तक्कर भयंकरा कास हरामोत्ति अज्ज दव्वं इह सामत्थं करेंति गुज्झं । बहुयस्स जणस्स कज्जकरणेसु विग्धकरा मत्तपमत्तपसुत्त-वीसस्थ-छिद्दघाई वसणन्भुदएसु हरणबुद्धी विगव्व रुहिरमहिया परेंति परवइ-मज्जायमइक्कता सज्जणजदुगंछिया सकम्मेहिं पावकम्मकारी असुभपरिणाया य दुक्खभागी णिच्चाविलदुहमणिन्वुइमणा इहलोए चेव किलिस्संता परदव्वहरा गरा वसणसयसमावण्णा।
७०–वे अकीत्तिकर अर्थात् अपयशजनक काम करने वाले और भयंकर-दूसरों के लिए भय उत्पन्न करने वाले तस्कर ऐसी गुप्त मंत्रणा विचारणा करते रहते हैं कि आज किसके द्रव्य का अपहरण करें; वे बहुत-से मनुष्यों के कार्य करने में विघ्नकारी होते हैं। वे मत्त-नशा के कारण बेभान, प्रमत्त-बेसुध सोए और विश्वास रखने वाले लोगों का अवसर देखकर घात कर देते हैं। व्यसन-संकट-विपत्ति और अभ्युदय-हर्ष आदि के प्रसंगों में चोरी करने की बुद्धि वाले होते हैं। वृक-भेड़ियों की तरह रुधिर-पिपासु होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं। वे राजाओं-राज्यशासन की मर्यादाओं का अतिक्रमण करने वाले, सज्जन पुरुषों द्वारा निन्दित एवं पापकर्म करने वाले (चोर) अपनी ही करतूतों के कारण अशुभ परिणाम वाले और दुःख के भागी होते हैं । सदैव मलिन, दुःखमय