________________
अदत्तादान के तीस नाम]]
[८५
१९. अक्खेव-आक्षेप–परकीय द्रव्य को अलग रखना या उसके स्वामी पर अथवा द्रव्य पर
झपटना।' २०. खेव-क्षेप-किसी की वस्तु छीन लेना। २१. विक्खेव-विक्षेप-परकीय वस्तु लेकर इधर-उधर कर देना, फेंक देना अथवा नष्ट कर
देना । २२. कूडया-कूटता तराजू , तोल, माप आदि में बेईमानी करना, लेने के लिए बड़े और
देने के लिए छोटे वांट आदि का प्रयोग करना। २३. कुलमसी—कुलमषि—कुल को मलीन–कलंकित करने वाली। २४. कंखा-कांक्षा-तीव्र इच्छा होने पर चोरी की जाती है अतएव चोरी का मूल कारण
होने से यह कांक्षा कहलाती है। . २५. लालप्पणपत्थणा-लालपन-प्रार्थना-निन्दित लाभ की अभिलाषा करने से यह लालपन
प्रार्थना है। २६. वसण--व्यसन-विपत्तियों का कारण । २७. इच्छा-मुच्छा-इच्छामूच्र्छा-परकीय धन में या वस्तु में इच्छा एवं आसक्ति होने के
कारण इसे इच्छा-मूर्छा कहा गया है । २८. तण्हा-गेही–तृष्णा-गृद्धि प्राप्त द्रव्य का मोह और अप्राप्त की आकांक्षा। २९. नियडिकम्म-निकृतिकर्म---कपटपूर्वक अदत्तादान किया जाता है,अतः यह निकृतिकर्म है। ३०. अपरच्छंति-अपराक्ष--दूसरों की नजर बचाकर यह कार्य किया जाता है, अतएव यह
अपराक्ष है। इस प्रकार पापकर्म और कलह से मलीन कार्यों की बहुलता वाले इस अदत्तादान मास्रव के ये और इस प्रकार के अन्य अनेक नाम हैं।
विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में अदत्तादान नामक तीसरे आस्रव के तीस नामों का उल्लेख किया गया है।
किसी की कोई वस्तु असावधानी से कहीं गिर गई हो, भूल से रह गई हो, जानबूझ कर रक्खी हो, उसे उसके स्वामी की आज्ञा, अनुमति या इच्छा के बिना ग्रहण कर लेना, चोरी कहलाती है।
पहले कहा जा चुका है कि तिनका, मिट्टी, रेत आदि वस्तुएँ, जो सभी. जनों के उपयोग के लिए मुक्त हैं, जिनके ग्रहण करने का सरकार की ओर से निषेध नहीं है, जिसका कोई स्वामीविशेष नहीं है या जिसके स्वामी ने अपनी वस्तु सर्वसाधारण के उपयोग के लिए मुक्त कर रक्खी है, उसको ग्रहण करना व्यवहार की दृष्टि से चोरी नहीं है। स्थूल अदत्तादान का त्यागी गृहस्थ यदि उसे ग्रहण कर लेता है तो उसके व्रत में बाधा नही आती । लोकव्यवहार में वह चोरी कहलाती भी नहीं है।
न करण और तीन योग से अदत्तादान के त्यागी साधुजन ऐसी वस्तु को भी ग्रहण नहीं कर सकते । आवश्यकता होने पर वे शक्रेन्द्र की अनुमति लेकर ही ग्रहण करते हैं।
___ अदत्तादान के तीस नाम जो बतलाए गए हैं, उनमें पुनरुक्ति नहीं है । वास्तव में वे उसके विविध प्रकारों-नाना रूपों को सूचित करते हैं। इन नामों से चौर्यकर्म की व्यापकता का परिबोध होता है। १-२-३. प्रश्नव्याकरणसूत्र (सन्मतिज्ञान पीठ), पृ. २४३