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________________ मृषावाद] होते हैं । देव की अनुकूलता हो तो बिना पुरुषार्थ किये इष्ट वस्तु प्राप्त हो जाती है और जब भाग्य प्रतिकूल होता है तो हजार-हजार प्रयत्न करने पर भी नहीं प्राप्त होती। अतएव संसार में सुख-दुःख का जनक भाग्य ही है । विधिवादी कहते हैं जिस अर्थ की प्राप्ति होती है वह हो ही जाती है, क्योंकि दैव अलंघनीय है-सर्पोपरि है, उसकी शक्ति अप्रतिहत है। अतएव दैववश जो कुछ होता है, उसके लिए मैं न तो शोक करता हूँ और न विस्मय में पड़ता हूँ। जो हमारा है, वह हमारा ही होगा। वह किसी अन्य का नहीं हो सकता।' .. तात्पर्य यह है कि एकमात्र भाग्य ही शुभाशुभ फल का प्रदाता है। विधि के विधान को कोई टाल नहीं सकता। नियतिवाद-भवितव्यता अथवा होनहार नियति कहलाती है। कई प्रमादी मनुष्य भवितव्य के सहारे निश्चिन्त रहने को कहते हैं। उनका कथन होता है-आखिर हमारे सोचने औ हैं। उनका कथन होता है-आखिर हमारे सोचने और करने से क्या होना जाना है ! जो होनहार है, वह होकर ही रहता है और अनहोनी कभी होती नहीं। पुरुषार्थवाद-यद्यपि मूल पाठ में पुरुषार्थवाद का नामोल्लेख नहीं किया गया है, तथापि अनेक लोग एकान्त पुरुषार्थवादी देखे जाते हैं । उनका मत भी मृषावाद के अन्तर्गत है। कोई-कोई कालवादी भी हैं । उपलक्षण से यहां उनका भी ग्रहण कर लेना चाहिए। एकान्त पुरुषार्थवादी स्वभाव, दैव आदि का निषेध करके केवल पुरुषार्थ से ही सर्व प्रकार की कार्य सिद्धि स्वीकार करते हैं। उनका कथन है-लक्ष्मी उद्योगी पुरुष को ही प्राप्त होती है । लक्ष्मी की प्राप्ति भाग्य से होती है, ऐसा कहने वाले पुरुष कायर हैं । अतएव दैव को ठोकर मारकर पनी शक्ति के अनुसार पुरुषार्थ करो। प्रयत्न किए जानो। प्रयत्न करने पर भी यदि सिद्धि न हो तो इसमें क्या दोष-बुराई है। कार्य तो उद्योग-पुरुषार्थ करने से ही सिद्ध होते हैं। निठल्ले बैठे-बैठे मंसूबे करते रहने से सिद्धि नहीं मिलती। शेर सोया पड़ा रहे और मृग पाकर उसके मुख में प्रविष्ट हो जाए, ऐसा क्या कभा हो सकता है ? नहीं ! शेर को अपनी भूख मिटाने के लिए पुरुषार्थ के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है। ___ कालवाद-एकान्त कालवादियों का कथन है कि स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ आदि नहीं किन्तु काल से ही कार्य की सिद्धि होती है। सब कारण विद्यमान होने पर भी जब तक काल परिपक्व नहीं होता तब तक कार्य नहीं होता । अमुक काल में ही गेहूँ, चना आदि धान्य की निष्पत्ति १. प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यः, किम् कारणं ? दैवमलङघनीयम् । तस्मान्न शोचामि न विस्मयामि, यदस्मदीयं न हि तत् परेषाम् ।। ___-अभयदेववृत्ति, पृ. ३५ २. न हि भवति यन्न भाव्यं, भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यति, यस्य न भवितव्यता नास्ति । - अ. वृत्ति पृ. ३५
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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