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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. १, अ. १
- इस जीवलोक में जो कुछ भी सुकृत या दुष्कृत दृष्टिगोचर होता है, वह सब यदृच्छा से, स्वभाव से अथवा दैवतप्रभाव-विधि के प्रभाव से ही होता है । इस लोक में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पुरुषार्थ से किया गया तत्त्व (सत्य) हो । लक्षण (वस्तुस्वरूप) और विद्या (भेद) की की नियति ही है, ऐसा कोई कहते हैं।
___विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में एकान्त यदृच्छावादी, स्वभाववादी, दैव या दैवतवादी एवं नियतिवादी के मन्तव्यों का उल्लेख करके उन्हें मृषा (मिथ्या) बतलाया गया है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि ऐसे वादी वस्तुतः ऋद्धि, रस और साता में आसक्त रहते हैं। वे पुरुषार्थहीन, प्रमादमय जीवन यापन करने वाले हैं, अतएव पुरुषार्थ के विरोधी हैं। उल्लिखित वादों का प्राशय संक्षेप में इस प्रकार है
यदृच्छावाद-सोच-विचार किए विना ही--अनभिसन्धिपूर्वक, अर्थप्राप्ति यदृच्छा कहलाती है । यदृच्छावाद का मन्तव्य है-प्राणियों को जो भी सुख या दुःख होता है, वह सब अचानकअतर्कित ही उपस्थित हो जाता है। यथा-काक आकाश में उड़ता-उड़ता अचानक किसी ताड़ के नीचे पहुँचा और अकस्मात् ही ताड़ का फल टूट कर गिरा और काक उससे आहत-घायल हो गया। यहाँ न तो काक का इरादा था कि मुझे आघात लगे और न ताड़-फल का अभिप्राय था कि मैं काक को चोट पहुँचाऊँ ! सब कुछ अचानक हो गया। इसी प्रकार जगत् में जो घटनाएँ घटित होती हैं, वे सब बिना अभिसन्धि–इरादे के घट जाती हैं। बुद्धिपूर्वक कुछ भी नहीं होता । अतएव अपने प्रयत्न एवं पुरुषार्थ का अभिमान करना वृथा है।'
स्वभाववाद-पदार्थ का स्वतः ही अमुक रूप में परिणमन होना स्वभाववाद कहलाता है। स्वभाववादियों का कथन है—जगत् में जो कुछ भी होता है, स्वतः ही हो जाता है। मनुष्य के करने से कुछ भी नहीं होता। कांटों में तीक्ष्णता कौन उत्पन्न करता है-कौन उन्हें नोकदार बनाता है ? पशुओं और पक्षियों के जो अनेकानेक विचित्र-विचित्र प्राकार-रूप आदि दृष्टिगोचर होते हैं, उनको बनाने वाला कौन है ? वस्तुतः यह सब स्वभाव से ही होता है। कांटे स्वभाव से ही नोकदार होते हैं और पशु-पक्षियों की विविधरूपता भी स्वभाव से ही उत्पन्न होती है। इसमें न किसी की इच्छा काम आती है, न कोई इसके लिए प्रयत्न या पुरुषार्थ करता है। इसी प्रकार जगत् के समस्त कार्यकलाप स्वभाव से ही हो रहे हैं । पुरुषार्थ को कोई स्थान नहीं है। लाख प्रयत्न करके भी कोई वस्तु के स्वभाव में तनिक भी परिवर्तन नहीं कर सकता।
विधिवाद-जगत् में कुछ लोग एकान्त विधिवाद–भाग्यवाद का समर्थन कर के मृषावाद करते हैं। उनका कथन है कि प्राणियों को जो भी सुख-दुःख होता है, जो हर्ष-विषाद के प्रसंग उपस्थित होते हैं, न तो यह इच्छा से और न स्वभाव से होते हैं, किन्तु विधि या भाग्य-दैव से ही १. प्रतकितोपस्थितमेव सर्वं, चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् । काकस्य तालेन यथाभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वृक्षाभिमानः ।।
—अभयदेववृत्ति पृ. ३६ २. क: कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं, विचित्रभा मगपक्षिणाञ्च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुत: प्रयत्न: ? ॥
-अभयदेववृत्ति, पृ. ३६