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|प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ. २
होती है । समय आने पर ही सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि होती है। अतएव एकमात्र कारण काल ही है।' - ये सब एकान्त मृषावाद हैं। वास्तव में काल, स्वभाव, नियति, देव और पुरुषार्थ, सभी यथायोग्य कार्यसिद्धि के सम्मिलित कारण हैं। स्मरण रखना चाहिए कि कार्यसिद्धि एक कारण से नहीं, अपितु सामग्री समग्र कारणों के समूह से होती है। काल आदि एक-एक कारण अपूर्ण कारक होने से सिद्धि के समर्थ कारण नहीं हैं । कहा गया है
कासो सहाव नियई, पुवकयं पुरिसकारणेगंता।
मिच्छत्तं, ते चेव उ· समासनो होति सम्मत्तं ॥ - काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (दैव-विधि) और पुरुषकार को एकान्त कारण मानना अर्थात् इन पांच में से किसी भी एक को कारण स्वीकार करना और शेष को कारण न मानना मिथ्यात्व है । ये सब मिलकर ही यथायोग्य कारण होते हैं, ऐसी मान्यता ही सम्यक्त्व है। झूठा दोषारोपण करने वाले निन्दक
५१-अयरे प्रहम्मनो रायदुळं अम्भक्खाणं भणंति अलियं चोरोत्ति अचोरयं करेंतं, डामरिउत्ति वि य एमेव उदासीणं, दुस्सीलोत्ति य परदारं गच्छइत्ति मालति सोलकलियं, अयं वि गुरुतप्पनो ति । अण्णे एमेव भणंति उवाहणंता मित्तकलत्ताई सेवंति अयं वि लुत्तधम्मो, इमोवि विस्संभवाइनो पावकम्मकारी अगम्मगामी अयं दुरप्पा बहुएसु च पावगेसु जुत्तोत्ति एवं जपंति मच्छरी। भद्दगे वा गुणकित्ति-णेह-परलोय-णिप्पिवासा । एवं ते अलियवयणदच्छा परदोसुप्पायणप्पसत्ता वेढेंति अक्खाइयबीएणं अप्पाणं कम्मबंधणेण मुहरी असमिक्खियप्पलावा।
५१-कोई-कोई-दूसरे लोग राज्यविरुद्ध मिथ्या दोषारोपण करते हैं। यथा-चोरी न करने वाले को चोर कहते हैं। जो उदासीन है-लड़ाई-झगड़ा नहीं करता, उसे लड़ाईखोर या भगड़ाल कहते हैं। जो सुशील है-शीलवान् है, उसे दुःशील व्यभिचारी कहते हैं, यह परस्त्रीगामी है, ऐसा कहकर उसे मलिन करते हैं-बदनाम करते हैं । उस पर ऐसा आरोप लगाते हैं कि यह तो गुरुपत्नी के साथ अनुचित सम्बन्ध रखता है । कोई-कोई किसी की कीत्ति अथवा आजीविका को नष्ट करने के लिए इस प्रकार मिथ्यादोषारोपण करते हैं कि यह अपने मित्र की पत्नियों का सेवन करता है। यह धर्महीन-अधार्मिक है, यह विश्वासघाती है, पाप कर्म करता है, नहीं करने योग्य कृत्य करता है, यह अगम्यगामी है अर्थात् भगिनी, पुत्रवधू आदि अगम्य स्त्रियों के साथ सहवास करता है, यह दुष्टात्मा है, बहुत-से पाप कर्मों को करने वाला है । इस प्रकार ईर्ष्यालु लोग मिथ्या प्रलाप करते हैं। भद्र पुरुष के परोपकार, क्षमा आदि गुणों की तथा कीति, स्नेह एवं परभव की लेशमात्र परवाह न करने वाले वे असत्यवादी, असत्य भाषण करने में कुशल, दूसरों के दोषों को (मन से घड़कर) बताने में निरत रहते हैं । वे विचार किए बिना बोलने वाले, अक्षय दु:ख के कारणभूत अत्यन्त दृढ़ कर्मबन्धनों से अपनी आत्मा को वेष्टित-बद्ध करते हैं।
१. काल: सजति भूतानि, काल: संहरते प्रजाः । काल: सुप्तेषु जागत्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ।।
-प्र. व्या. (सन्मति ज्ञानपीठ) पृ. २१२