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जब तक रागद्वेषरूपी कर्मबीज जल नहीं जाता है तब तक कर्मप्रवाह - परम्परा भी समाप्त नहीं होती ।
भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक २ में गणधर गौतम ने यह जिज्ञासा प्रस्तुत की कि प्राणी स्वकृत सुख और दुःख को भोगता है या परकृत सुख और दुःख को भोगता है ? भगवान् महावीर ने यह स्पष्ट किया कि प्राणी स्वकृत सुख-दुःख को भोगता है, परकृत सुख-दुःख को नहीं ।
भगवतीसूत्र शतक ६, उद्देशक ९ में और शतक ८, उद्देशक १० में कर्म की आठ प्रकृतियाँ बताई हैं और उनके अल्प - बहुत्व पर भी चिन्तन किया है और शतक ६, उद्देशक ३ में आठों कर्मों की स्थिति पर भी प्रकाश डाला है । शतक ६, उद्देशक ३ में कर्म कौन बांधता है ? इसके उत्तर में कहा है कि तीनों वेद वाले कर्म बांधते हैं । असंयत, संयत, संयतासंयत, सभी कर्म बांधते हैं किन्तु नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत यानी सिद्ध कर्म नहीं बाँधते हैं। इसी प्रकार संज्ञी, भवसिद्धिक, चक्षुदर्शनी, पर्याप्त और अपर्याप्त, परीत, अपरीत, मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी, आहारक, अनाहारक, कौन कर्म बाँधते हैं, इस पर भी गहराई से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। शतक १८, उद्देशक ३ में माकन्दीपुत्र ने भगवान् से पूछा—एक जीव ने पापकर्म किया है या अब करेगा, इन दोनों में क्या अन्तर है ? भगवान् ने बाण के रूपक द्वारा इस प्रश्न का समाधान दिया। शतक १, उद्देशक ३ में गणधर गौतम ने पूछा- जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार बांधता है ? इस प्रश्न के समाधान में भगवान् ने बांधने की सारी प्रक्रिया प्रस्तुत की ।
इस तरह विविध प्रश्न कर्म के सम्बन्ध में विभिन्न जिज्ञासुओं ने भगवान् महावीर के सामने रखे और भगवान् ने उन प्रश्नों का सटीक समाधान प्रस्तुत किया। वस्तुतः जैनदर्शन का कर्मसिद्धान्त बहुत ही अनूठा और अद्भुत है। आगमसाहित्य में आये हुए कर्मसिद्धान्त के बीजसूत्रों को परवर्ती आचार्य-प्रवरों ने इतना अधिक विस्तृत किया कि आज लगभग एक लाख श्लोकप्रमाण श्वेताम्बर कर्मसाहित्य है, तो दो लाख श्लोक-प्रमाण दिगम्बर मनीषियों द्वारा लिखा हुआ कर्मसाहित्य है।
पुद्गल : एक चिन्तन
पुद्गल जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जिसे आधुनिक विज्ञान के मैटर (Matter) और न्यायवैशेषिक दर्शनों ने भौतिक तत्त्व कहा है, उसे ही जैन दार्शनिकों ने पुद्गल कहा है। बौद्धदर्शन में पुद्गल शब्द का व्यवहार ‘आलय-विज्ञान' या 'चेतना - संतति' रहा है। पर जैनदर्शन में पुद्गल शब्द मूर्त्तद्रव्य के अर्थ में हैं। केवल भगवतीसूत्र शतक ८, उद्देशक १० में अभेदोपचार से पुद्गलयुक्त आत्मा को भी पुद्गल कहा है। पर शेष सभी स्थलों पर पुद्गल को पूरण-गलनधर्मी कहा है।'तत्त्वार्थराजवार्तिक', सिद्धसेनीया' तत्त्वार्थवृत्ति', ं धवला’ और हरिवंशपुराण, आदि अनेक ग्रन्थों में गलन-मिलन स्वभाव वाले पदार्थ को पुद्गल कहा है। पुद्गल वह है जिसका स्पर्श किया जा सके, जिसका स्वाद लिया जा सके, जिसकी गन्ध ली जा सके और जिसे निहारा जा
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तत्त्वार्थराजवार्तिक ५/११/२४
(क) तत्त्वार्थवृत्ति ५।१
(ख) न्यायकोष पृष्ठ ५२०
छव्विहसंठाणं बहुविहि देहेहि पूरदित्ति गलदित्ति मोग्गला ।
हरिवंशपुराण ७ ३६
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