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सके। पुद्गल में स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चारों अनिवार्य रूप से पाये जाते हैं। यह बात भगवतीसूत्र शतक २, उद्देशक १० में स्पष्ट की गई है । भगवतीसूत्र शतक २, उद्देशक १० पुद्गल के चार प्रकार बताये हैं । (१) स्कन्ध, (२) देश, (३) प्रदेश और (४) परमाणु ।' दो से लेकर अनन्त परमाणुओं का एकीभाव स्कन्ध हैं। कम से कम दो परमाणु पुद्गल के मिलने से द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है। द्विप्रदेशी स्कन्ध का जब भेद होता है तो वे दोनों परमाणु बन जाते हैं। तीन परमाणुओं के मिलने से त्रिपदेशी स्कन्ध बनता है और उनके पृथक् होने पर दो विकल्प हो सकते हैं — एक तीन . परमाणु या एक परमाणु और एक द्विप्रदेशी स्कन्ध । इसी प्रकार अनन्त परमाणुओं के स्वाभाविक मिलन से एक लोकव्यापी महास्कन्ध भी बन जाता है। आचार्य उमास्वाति ने लिखा है स्कन्ध का निर्माण तीन प्रकार से होता है—भेदपूर्वक, संघातपूर्वक, भेद और संघातपूर्वक । स्कन्ध एक इकाई है। उस इकाई का बुद्धिकल्पित एक विभाग स्कन्धदेश कहलाता है। हम जिसे देश कहते हैं वह स्कन्ध से पृथक् नहीं है। यदि पृथक् हो जाय तो वह स्वतन्त्र स्कन्ध बन जायेगा । स्कन्धप्रदेश स्कन्ध से अपृथक्भूत अविभाज्य अंश है । अर्थात् परमाणु जब तक स्कन्धगत है तब तक वह स्कन्धप्रदेश कहलाता है । वह अविभागी अंश सूक्ष्मतम है, जिसका पुनः अंश नहीं बनता। जब तक वह स्कन्धगत है वह प्रदेश है और अपनी पृथक् अवस्था में वह परमाणु हैं । भगवतीसूत्र शतक ५, उद्देशक ७ में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि परमाणुपुद्गल अविभाज्य है, अच्छेद्य हैं, अभेद्य है, अदाह्य है और अग्राह्य है । वह तलवार की तीक्ष्ण धार पर भी रह सकता है । तलवार उसका छेदन - भेदन नहीं कर सकती और न जाज्वल्यमान अग्नि उसको जला सकती है। प्रदेश और परमाणु में केवल स्कन्ध से अपृथक्भाव और पृथक्भाव का अन्तर है । अनुसंधान से ये निश्चित हो चुका है कि परमाणुवाद की चर्चा सर्वप्रथम भारत में हुई और उसका श्रेय जैन मनीषियों है।
भगवतीसूत्र शतक ८ उद्देशक १ में जीव और पुद्गल की पारस्परिक परिणति को लेकर पुद्गल के तीन भेद किये हैं- – १ . प्रयोगपरिणत — जो पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किये गए हैं वे प्रयोगपरिणत हैं, जैसे—इन्द्रियाँ, शरीर आदि के पुद्गल । २. मिश्रपरिणत – ऐसे पुद्गल जो जीव मुक्त होकर पुनः परिणत हो चुके हैं, जैसेमल-मूत्र, श्लेष्म - केश आदि । ३. विस्रसापरिणत — ऐसे पुद्गल जिनके परिणमन में जीव की सहायता नहीं होती। वे स्वयं ही परिणत होते हैं, जैसे—बादल, इन्द्रधनुष आदि ।
शतक १४, उद्देशक ४ में यह बताया है कि पुद्गल शाश्वत भी हैं और अशाश्वत भी हैं। वे द्रव्यरूप से शाश्वत और पर्यायरूप से अशाश्वत हैं। परमाणु संघात (स्कंध) रूप में परिणत होकर पुन: परमाणु हो जाता है । · इस कारण से वह द्रव्य की दृष्टि से परम नहीं है किन्तु क्षेत्र, काल, भव की दृष्टि से वह चरम भी है और अचरम भी है।
भगवतीसूत्र शतक ५, उद्देशक ८ में बताया है कि परमाणु, परमाणु के रूप में कम से कम रहे तो एक समय और अधिक से अधिक समय तक रहे तो असंख्यात काल तक रहता है। इसी प्रकार स्कन्ध, स्कन्ध के रूप कम से कम एक समय और अधिक से अधिक असंख्यात काल तक रहता है। इसके बाद अनिवार्य रूप से उसमें
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(क) भगवती. २/१० (ख) उत्तराध्यायन ३६/१०
तत्त्वार्थसूत्र ५।२६
देखिए — जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण में पुद्गल का लेख
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- देवेन्द्रमुनि