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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
७२४]
जहा सन्नीणं पढमसमयुद्देसए तहेव, नवरं सम्मत्तं, सम्मामिच्छत्तं, नाणं च सव्वत्थ नत्थि । सेसं
तहेव ।
सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ॥। ४० । १५ ॥२॥
[३ प्र.] भगवन् ! प्रथमसमयोत्पन्न अभवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न ।
[३ उ.] गौतम ! प्रथमसमय के संज्ञी - उद्देशक के अनुसार सर्वत्र जानना चाहिए, विशेष—– सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और ज्ञान सर्वत्र नहीं होता। शेष पूर्ववत् ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् ॥ ४० ॥ १५ ॥ २ ॥
४. एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा कायव्वा, पढम-ततिय- पंचमा एक्कगमा । सेसा अट्ठ एक्कगमा ।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० ॥ ४० । १५ । ३-११॥
॥ चत्तालीसइमे सते : पन्नरसमं सर्य समत्तं ॥ ४०-१५ ॥
[४] इस प्रकार इस शतक में भी ग्यारह उद्देशक होते हैं। इनमें से प्रथम, तृतीय एवं पंचम, ये तीनों उद्देशक समान पाठ वाले हैं तथा शेष आठ उद्देशक भी एक समान हैं।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् ॥ ४० । १५ । ३-११ ॥
॥ चालीसवाँ शतक : पन्द्रहवाँ अवान्तरशतक समाप्त ॥
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