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पन्नरसमे सन्निपंचिंदियमहाजुम्मसए: एक्कारस उद्देसगा
पन्द्रहवाँ संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : ग्यारह उद्देशक
१. अभवसिद्धिकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेदिया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? ०
उववातो तहेव अणुत्तरविमाणवज्जो । परिमाणं, अवहारो, उच्चत्तं, बंधो, वेदो, वेयणं, उदयो, उदीरणा या जहा कण्हलेस्ससते कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा । नो सम्मद्दिट्ठी, मिच्छद्दिट्ठी नो सम्मामिच्छादिट्ठी । नो नाणी, अन्नाणी । एवं जहा कण्हलेस्ससए, नवरं नो विरया, अविरया, नो विरयाविरया । संचिट्टणा, ठिती य जहा ओहिउद्देसए । समुग्धाया आइल्लगा पंच। उव्वट्टणा तहेव अणुत्तरविमाणवज्जं । 'सव्वपाणा • ? णो इणट्ठे समट्टे ।' सेसं जहा कण्हलेस्ससए जाव अनंतखुत्तो ।
[१ प्र.] भगवन् ! अभवसिद्धिक- कृतयुग्म कृतयुग्मराशि - संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न
होते हैं ?
[१ उ.] गौतम ! अनुत्तरविमानों को छोड़कर शेष सभी स्थानों में पूर्ववत् उपपात जानना चाहिए । इनका परिमाण, अपहार, ऊँचाई, बन्ध, वेद, वेदन, उदय और उदीरणा कृष्णलेश्याशतक के समान हैं । वे कृष्णलेश्यी से लेकर यावत् शुक्ललेश्यी होते हैं । वे सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते, केवल मिथ्यादृष्टि होते हैं । वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी हैं। इसी प्रकार सब कृष्णलेश्याशतक के समान है। विशेष यह है कि वे विरत और विरताविरत नहीं होते, मात्र अविरत होते हैं। इनका संचिट्ठणाकाल और स्थिति औधिक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। इनमें प्रथम के पांच समुद्घात पाये जाते हैं। उद्वर्त्तना अनुत्तरविमानों को छोड़कर पूर्ववत् जानना चाहिए। तथा—
[प्र.] क्या सभी प्राण यावत् सत्त्व पहले इनमें उत्पन्न हुए हैं ?
[उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं। शेष कृष्णलेश्याशतक के समान पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए ।
२. एवं सोलससु वि जुम्मेसु ।
सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ॥ ४०-१५-१॥
[२] इसी प्रकार सोलह ही युग्मों के विषय में जानना चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं ।। ४० । १५ । १ ।।
३. पढमसमयअभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! कओ उववजंति ? ०