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नवमाइचोद्दसमपज्जंता सया : पत्तेयं एक्कारस उद्देसगा
नौवें से चौदहवें शतक पर्यन्त: प्रत्येक के ग्यारह उद्देशक
१. कण्हलेस्सभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? ० एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहियकण्हलेस्ससयं ।
सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ॥। ४० । ९ । १-११॥
[१ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी- भवसिद्धिक कृतयुग्म - कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि समग्र प्रश्न ।
[१ उ.] गौतम ! कृष्णलेश्यी औधिकशतक के अनुसार इसी अभिलाप से यह शतक कहना ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं', इत्यादि पूर्ववत् ।
२. एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहि वि सतं ।
सेवं भंते! सेवं भंते ! ० ।। ४० । १० । १-११॥
[२] नीललेश्यीभवसिद्धिकशतक भी इसी प्रकार जानना । 'भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं', इत्यादि पूर्ववत् ।
३. एवं जहा ओहियाणि सन्निपंचेंदियाणं सत्त सयाणि भणियाण एवं भवसिद्धिएहि वि सत्त सयाणि कायव्वाणि, नवरं सत्तसु वि सएसु 'सव्वपाणा जाव णो इणट्ठे समट्ठे ।' सेसं तं चेव ।
।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! ० ।
॥ भवसिद्धियसया समत्ता ॥ ४०-८-१४ ॥
॥ चत्तालीसइमे सते चोद्दसमं सयं समत्तं ॥ ४०-१४॥
[३] संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के सात औधिकशतक कहे हैं, इसी प्रकार भवसिद्धिक सम्बन्धी सातों शतक कहने चाहिए । विशेष यह है
इससे पूर्व सर्व प्राण, यावत् सर्व सत्त्व उत्पन्न हुए हैं ?
[प्र.] सातों शतकों में क्या [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् ।
विवेचन — प्रस्तुत में कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक आदि नौवें से चौदहवें शतक तक का औधिक अतिश पूर्वक कथन किया गया हैं।
॥ चालीसवाँ शतक : नौवें से चौदहवें अवान्तरशतक तक सम्पूर्ण ॥
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