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________________ चौतीसवां शतक : उद्देशक-१] | [६५७ [४१-१ उ.] गौतम ! वह दो या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [२] से केणटेणं०? एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ, तं जहा—उज्जुआयता जाव अद्धचक्कवाला। एगतोवंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, दुहतोवंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, से तेणटेणं०।। [४१-२ प्र.] भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है, कि वह दो या तीन समय की ? इत्यादि प्रश्न । ___ [४१-२ उ.] गौतम ! मैंने सात श्रेणियाँ कही हैं, यथा—ऋज्वायता यावत् अर्द्धचक्रवाल । यदि वह जीव एकतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है, तो दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है, यदि वह उभयतोवक्राश्रेणी से उत्पन्न होता है, तो तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। इसी कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त कथन किया गया है। ४२. एवं पजत्तएसु वि, बायरतेउकाइएसु वि उववातेयव्वो। वाउकाइय-वणस्सतिकाइयत्ताए चउक्काएणं भेएणं जहा आउकाइयत्ताए तहेव उववातेयव्वो। [४२] इसी प्रकार पर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव में भी उपपात जानना चाहिए। जिस प्रकार अप्कायिक-रूप में उत्पन्न होने की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार वायुकायिक और वनस्पतिकायिक रूप में भी चार-चार भेद से उत्पन्न होने की वक्तव्यता कहनी चाहिए। ४३. एवं जहा अपजत्तसुहुमपुढविकाइयस्स गमओ भणिओ एवं पजत्तसुहुमपुढविकाइयस्स वि भाणियव्वो, तहेव वीसाए ठाणेसु उववातेयव्यो। [४३] जिस प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक का गमक कहा है, उसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक का गमक भी कहना चाहिए और उसी प्रकार (पूर्वोक्त) वीस स्थानों में उपपात कहना चाहिए। ४४. अहेलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहयओ एवं बायरपुढविकाइयस्स वि अपजत्तगस्स पज्जत्तगस्स य भाणियव्वं। [४४] जिस प्रकार अधोलोकक्षेत्र की त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्घात करके " यावत् विग्रहगति में उपपात कहा है, उसी प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक के उपपात का भी कथन करना चाहिए। ४५. एवं आउकाइयस्स चउव्विहस्स वि भाणियव्वं । [४५] चारों प्रकार के अप्कायिक जीवों का कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए। ४६. सुहुमतेउकाइयस्स दुविहस्स वि एवं चेव। [४६] पर्याप्त और अपर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिक जीव के उपपात का कथन भी इसी प्रकार है। ४७. [१] अपजत्तबायरतेउकाइए णं भंते ! समयखेत्ते समोहते, समोहणित्ता जे भविए
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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