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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
होते हैं। .
६. रतणप्पभपुढविखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ?
एवं जहा ओहियनेरइयाणं वत्तव्वया सच्चेव रयणप्पभाए वि भाणियव्वा जाव नो परप्पयोगेणं उववजति।
[६ प्र.] भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म-राशिप्रमाण रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न।
. [६ उ.] गौतम ! औधिक नैरयिकों की जो वक्तव्यता कही है, वही रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के लिए भी कि वे परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते, यहाँ तक कहना चाहिए।
७. एवं सक्करप्पभाए वि। ८. एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं उववाओ जहा वक्कंतीए।
अस्सण्णी खलु पढमं दोच्चं च सरीसवा ततिय पक्खी। ० गाहा (पण्णवणासुत्तं सु० ६४७४८, गा० १८३-८४)। एवं उववातेयव्वा। सेसं तहेव।।
__ [७-८] इसी प्रकार शर्कराप्रभा से लेकर अधःसप्तमपृथ्वी तक जानना चाहिए। प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार यहाँ भी उपपात जानना चाहिए।
असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप (भुजपरिसर्प) द्वितीय नरक तक और पक्षी तृतीय नरक तक उत्पन्न होते हैं, इत्यादि (प्रज्ञापनासूत्र सू. ६४७-४८, गाथा-१८३-८४ के अनुसार) उपपात जानना चाहिए। शेष पूर्ववत् समझना।
९. खुड्डातेयोगनेरतिया णं भंते ! कओ उववजंति ? किं नेरईएहितो ?. उववातो जहा वक्कंतीए। [९ प्र.] भगवन् ! क्षुद्रत्र्योज-राशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से आंकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न। [९ उ.] इनका उपपात भी प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार जानना चाहिए। १०. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववजंति ?
गोयमा ! तिन्नि वा, सत्त वा, एक्कारस वा, पन्नरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववजंति। सेसं जहा कडजुम्मस्स।
[१० प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ?
[१० उ.] गौतम ! वे एक समय में तीन, सात, ग्यारह, पन्द्रह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। शेष सभी कृतयुग्म नैरयिक के समान जानना चाहिए।