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तइओ उद्देसओ : तृतीय उद्देशक
परम्परोपपन्नक नैरयिकादि - सम्बन्धी
परम्पपरोपपन्नक चौवीस दण्डकीय जीवों में ग्यारह स्थानों के द्वारा क्रियावादादिनिरूपण
१. परंपरावेवन्नगा णं भंते नेरड्या किरियावादी० ? एवं जहेव ओहिओ उद्देसओ तहेव परंपरोववन्नसुविनेरइयाईओ तहेव निरवसेसं भाणियव्व, तहेव तियदंडगसंगहिओ ।
सेवं भंते! सेवं भंते ! जाव विहरइ ।
॥ तीसइमे सए : तइओ उद्देसओ समत्तो ॥ ३०-३ ॥
[१ प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक नैरयिक क्रियावादी हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ।
[१ उ.] गौतम ! औघिक उद्देशकानुसार परम्परोपपन्नक नैरयिक आदि (नारक से वैमानिक तक) हैं और उसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त समग्र उद्देशक तीन दण्डक सहित कहना चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते
हैं।
विवेचन — औधिक उद्देशक का अतिदेश— प्रस्तुत उद्देशक में जिन जीवों को उत्पन्न हुए एक समय से अधिक काल हो गया है, ऐसे परम्परोपपन्नक जीवों में क्रियावादित्वादि के निरूपण के लिए औघिक उद्देशक का अतिदेश किया गया है।
तीन दण्डक : तीन पाठ (१) क्रियावादित्व आदि की प्ररूपणा एकदण्डक, (२) उनके आयुष्यबन्ध की प्ररूपणा करना दूसरा दण्डक और (३) भवसिद्धिकत्व - अभवसिद्धिकत्व की प्ररूपणा करना तृतीय दण्डक है ।
॥ तीसवाँ शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त ॥