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और व्यवहार दृष्टि से वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है । वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व ये काल के उपकारक हैं । इन्हीं के कारण वह द्रव्य माना जाता है। उसका व्यवहार पदार्थों की स्थिति आदि के लिए होता है ।
निश्चय दृष्टि से काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने की आवश्यकता नहीं है। उसे जीव और अजीव के पर्यायरूप मानने से ही सभी कार्य व सभी व्यवहार सम्पन्न हो सकते हैं। व्यवहार की दृष्टि से ही उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना है और उसे पृथक् द्रव्य गिनाया गया है एवं उसे जीवाजीवात्मक भी कहा है।
वेद व उपनिषदों में काल शब्द का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ है, किन्तु वैदिक महर्षियों का काल के सम्बन्ध में क्या मन्तव्य है, यह स्पष्ट नहीं है । वैशेषिकदर्शन का यह मन्तव्य है कि काल द्रव्य है, नित्य है, एक है और सम्पूर्ण कार्यों का निमित्त है। न्यायदर्शन में काल के सम्बन्ध में वैशेषिकदर्शन का ही अनुसरण किया गया है।' पूर्वमीमांसा के प्रणेता जैमिनि ने काल तत्त्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं किया है तथापि पूर्वमीमांसा के समर्थ व्याख्याकार पार्थसारथी मिश्र की शास्त्रदीपिका पर युक्तिस्नेहप्रपूरणी सिद्धान्तचन्द्रिका'
पण्डित रामकृष्ण ने काल तत्त्व सम्बन्धी मीमांसक मत का प्रतिपादन करते हुए वैशेषिकदर्शन की काल की मान्यता को स्वीकार किया है, पर अन्तर यह है कि वैशेषिकदर्शन काल को परोक्ष मानता है तो मीमांसकदर्शन काल को प्रत्यक्ष मानता है । इस तरह वैशेषिक, न्याय, पूर्वमीमांसा काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं । सांख्यदर्शन ने प्रकृति और पुरुष को ही मूल तत्त्व माना है और आकाश, दिशा, मन आदि को प्रकृति का विकार माना है। सांख्यदर्शन में काल नामक कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है पर एक प्राकृतिक परिणमन है। प्रकृति नित्य होने पर भी परिणमनशील है, यह स्थूल और सूक्ष्म जड़ प्रकृति का ही विचार हैं।
योगदर्शन के रचयिता महर्षि पतञ्जलि ने योगदर्शन में कहीं भी काल तत्त्व के सम्बन्ध में सूचन नहीं किया हैं। पर योगदर्शन के भाष्यकार व्यास ने तृतीय पाद के बावनवें सूत्र पर भाष्य करते हुए काल तत्त्व का स्पष्ट उल्लेख किया है । वे लिखते हैं— मुहूर्त, प्रहर, दिवस आदि लौकिक कालव्यवहार बुद्धिकृत और काल्पनिक हैं । कल्पना से बुद्धिकृत छोटे और बड़े विभाग किये जाते हैं। वे सभी क्षण पर अवलम्बित हैं। क्षण ही वास्तविक है परन्तु वह मूल तत्त्व के रूप में नहीं है। किसी भी मूल तत्त्व के परिणाम रूप में वह सत्य है। जिस परिणाम का बुद्धि से विभाग न हो सके वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म परिणाम क्षण है । उस क्षण का स्वरूप स्पष्ट करते हुए बताया है कि एक परमाणु को अपना क्षेत्र छोड़कर दूसरा क्षेत्र प्राप्त करने में जितना समय व्यतीत होता है उसे क्षण कहते हैं । यह क्रिया के अविभाज्य अंश का संकेत है। योगदर्शन में सांख्यदर्शनसम्मत जड़ प्रकृति तत्त्व को ही क्रियाशील
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(क) भगवती २।१०।१२० : ११/११/४२४; १३/४/४८३
(ख) प्रज्ञापनापद १
(ग) उत्तराध्ययन, २८/१०
स्थानाङ्गसूत्र ९५
वैशेषिकदर्शन २२६ से ९
पंचाध्यायी २|१|२३
युक्तिस्नेहप्रपूरणी सिद्धान्तचन्द्रिका १२१२५/५
सांख्यप्रवचन २।१२
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