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के अनुसार काल एक स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। काल जीव और अजीव द्रव्य का पर्याय-प्रवाह है। इस दृष्टि से जीव और अजीव द्रव्य का पर्यायपरिणमन ही उपचार से काल कहलाता है। इसलिये जीव और अजीव द्रव्य को ही काल द्रव्य जानना चाहिये। द्वितीय मतानुसार जीव और पुद्गल जिस प्रकार स्वतन्त्र द्रव्य हैं, वैसे ही काल भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है। भगवती' उत्तराध्ययन, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, आदि में काल सम्बन्धी दोनों मान्यताओं का उल्लेख है। उसके पश्चात् आचार्य उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, आचार्य हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय जी, विनयविजयजी देवचन्द्रजी'२ आदि श्वेताम्बर विज्ञों ने दोनों पक्षों का उल्लेख किया है किन्तु दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द,१२ पूज्यपाद,१४ भट्टारक अकलंकदेव, विद्यानन्द स्वामी आदि ने केवल द्वितीय पक्ष को ही माना है। वे काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं।
प्रथम मत यह है कि समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन-रात आदि जो भी व्यवहार काल-साध्य हैं वे सभी पर्याय-विशेष के संकेत हैं। पर्याय, वह जीव-अजीव की क्रिया-विशेष है जो किसी भी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के बिना होती है, अर्थात् जीव-अजीव दोनों अपने-अपने पर्याय रूप में स्वत: ही परिणत हुआ करते हैं अतः जीवअजीव के पर्याय-पुञ्ज को ही काल कहना चाहिए। काल अपने-आप में कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है।
द्वितीय मत यह है कि जैसे जीव और पुद्गल स्वयं ही गति करते हैं और स्वयं ही स्थिर होते हैं, उनकी गति और स्थिति में निमित्त रूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं, वैसे ही जीव और अजीव में पर्याय-परिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके निमित्तकारण रूप काल द्रव्य को मानना चाहिए।
उक्त दोनों कथन परस्पर विरोधी नहीं किन्तु सापेक्ष हैं । निश्चय दृष्टि से काल जीव-अजीव की पर्याय है १. भगवती २५।४।७३४
उत्तराध्ययन, २८७-८ ३. जीवाभिगम
प्रज्ञापना पद १. सूत्र ३ ५. तत्त्वार्थसूत्र ५।३८-३९ देखें भाष्य व्याख्या सिद्धसेन कृत
द्वात्रिंशिका विशेषावश्यकभाष्य ९२६ और २०६८ धर्मसंग्रहणी गाथा ३२. मयलगिरि टीका योगशास्त्र
द्रव्यगणपयाय रास. देखें प्रकरण रत्नाकर भा.१.गा.१० ११. लोकप्रकाश १२. नयचक्रसार और आगमसार ग्रन्थ देखें १३. प्रवचनसार अ. २. गाथा ४६-४७ १४. तत्त्वार्थ० सर्वार्थसिद्धि ५/३८-३९ १५. तत्त्वार्थ राजवार्तिक ५/३८-३९ १६. तत्त्वार्थ० श्लोकवार्तिक ५/३८-३९ १७. दर्शन और चिन्तन, पृ. ३३१, पं. सुखलालजी १८. दर्शन और चिन्तन, पृ. ३३२ पं. सुखलालजी ।
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