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माना है। उसकी क्रियाशीलता स्वाभाविक है, अत: उसे क्रिया करने में अन्य तत्त्व की अपेक्षा नहीं है। उससे योगदर्शन और सांख्यदर्शन क्रिया के निमित्त कारण रूप में वैशेषिकदर्शन के समान काल तत्त्व को प्रकृति से भिन्न या स्वतन्त्र नहीं मानता।
उत्तरमीमांसादर्शन, वेदान्तदर्शन और औपनिषदिक दर्शन के नाम से विश्रुत है । इस दर्शन के प्रणेता वादरायण ने कहीं भी अपने ग्रन्थ में कालतत्त्व के सम्बन्ध में वर्णन नहीं किया है, किन्तु प्रस्तुत दर्शन के समर्थ भाष्यकार आचार्य शंकर ने मात्र ब्रह्म को ही मूल और स्वतन्त्र तत्त्व स्वीकार किया है—‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ।' इस सिद्धान्त के अनुसार तो आकाश, परमाणु आदि किसी भी तत्त्व को स्वतन्त्र स्थान नहीं दिया गया है। यह स्मरण रखना चाहिये कि वेदान्तदर्शन के अन्य व्याख्याकार रामानुज, निम्बार्क, मध्व और वल्लभ आदि कितने ही मुख्य विषयों में आचार्य शंकर से अलग विचारधारा रखते हैं । उनकी पृथक् विचारधारा का केन्द्र आत्मा का स्वरूप, विश्व की सत्यता और असत्यता है । पर किसी ने भी कालतत्त्व को स्वतन्त्र नहीं माना है। इसमें सभी वेदान्तदर्शन के व्याख्याकार एकमत हैं। इस प्रकार सांख्य, योग और उत्तरमीमांसा ये अस्वतन्त्र कालतत्त्ववादी हैं। जैनदर्शन में जैसे काल तत्त्व के सम्बन्ध में दो विचारधाराएं हैं वैसे ही वैदिक दर्शन में भी एक स्वतन्त्र कालतत्त्ववादी हैं तो दूसरे अस्वतन्त्र कालतत्त्ववादी हैं ।
बौद्धदर्शन में काल केवल व्यवहार के लिये कल्पित है । काल कोई स्वभावसिद्ध पदार्थ नहीं है, प्रज्ञप्ति मात्र है ं किन्तु अतीत, अनागत और वर्तमान आदि व्यवहार मुख्य काल के बिना नहीं हो सकते। जैसे कि बालक में शेर का उपचार मुख्य शेर के सद्भाव में ही होता है, वैसे ही सम्पूर्ण कालिक व्यवहार मुख्य कालद्रव्य के बिना नहीं हो सकते।
पौषध : एक चिन्तन
भगवतीसूत्र शतक १२ उद्देशक १ में शंख श्रावक का वर्णन है । यह श्रावस्ती का रहने वाला था तथा जी आदि तत्त्वों का गम्भीर ज्ञाता था । उत्पला उसकी धर्मपत्नी थी। उसने भगवान् महावीर से अनेक जिज्ञासाएं कीं। समाधान पाकर वह परम संतुष्ट हुआ । अन्य प्रमुख श्रावकों के साथ वह श्रावस्ती की ओर लौट रहा था । उसने अन्य श्रमणोपासकों से कहा कि भोजन तैयार करें और हम भोजन करके फिर पाक्षिक पौषध ग्रहण करेंगे। उसके पश्चात् शंख श्रावक ने ब्रह्मचर्यपूर्वक चन्दनविलेपन आदि को छोड़कर पौषधशाला में पौषध स्वीकार किया। पौषध का अर्थ है अपने निकट रहना । पर-स्वरूप से हटकर स्व-स्वरूप में स्थित होना । साधक दिन भर उपासनागृह में अवस्थित होकर धर्मसाधना करता है। यह साधना दिन-रात की होती है । उस समय सभी प्रकार के अन्न-जल-मुखवास-मेवा आदि चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है, कामभोग का त्याग तथा रजत-स्वर्ण, मणि-मुक्ता आदि बहुमूल्य आभूषणों का त्याग, माल्य-गंध धारण का त्याग, हिंसक उपकरणों एवं समस्त दोषपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। जैन परम्परा में इस व्रत की आराधना व्रती श्रमणोपासक
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१.
(क) दर्शन अने चिन्तन, भाग २, पृष्ठ १०२८, पं. सुखलाल संघवी
(ख) योगदर्शन पा. ३. सूत्र ५२ का भाष्य
अनुशालिनी १|३|१६
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