SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 686
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [५५५ अट्ठमो उद्देसओ : आठवाँ उद्देशक अनन्तरपर्याप्तक नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध अनन्तरपर्याप्तक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध की प्ररूपणा १. अणंतरपजत्तए णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं किं बंधी० पुच्छा। गोयमा ! एवं जहेव अणंतरोववन्नएहिं उद्देसो तहेव निरवसेसं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। ॥छव्वीसइमे सए : अट्ठमो उद्देसओ समत्तो॥२६-८॥ [१ प्र.] भगवन् ! क्या अनन्तरपर्याप्तक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था? इत्यादि पूर्ववत् चतुभंगात्मक प्रश्न । [१ प्र.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नक (नैरयिकादिसम्बन्धी) उद्देशक के समान यह सारा उद्देशक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–अनन्तपर्याप्तक का स्वरूप—पर्याप्तकत्व के प्रथम समयवर्ती को अनन्तरपर्याप्तक कहते हैं। ॥ छव्वीसवां शतक : आठवाँ उद्देशक समाप्त॥ ***
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy