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________________ ५५४] सत्तमो उद्देसओ : सातवाँ उद्देशक परम्पराहारक नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध परम्पराहारक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध की प्ररूपणा १. परंपराहारए णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं किं बंधी० पुच्छा । गोयमा ! एवं जहेव परंपरोववन्नएहिं उद्देसो तहेव निरवसेसो भाणियव्वो । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० । ॥ छ्व्वीसइमे सए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो ॥ २६-७॥ [१ प्र.] भगवन् ! क्या परम्पराहारक नैरयिक ने पापकर्म का बन्ध किया था ? इत्यादि पूर्ववत् समग्र प्रश्न । [१ प्र.] गौतम ! जिस प्रकार परम्परोपपत्रक नैरयिकादि-सम्बन्धी उद्देशक कहा है, उसी प्रकार समग्र परम्पराहारक उद्देशक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन — परम्पराहारक का स्वरूप- आहारकत्व के द्वितीय आदि समयवर्ती को परम्पराहारक कहते हैं ।. ॥ छव्वीसवाँ शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त ॥
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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