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________________ छट्ठो उद्देसओ : छठा उद्देशक अनन्तराहारक नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध अनन्तराहारक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध की प्ररूपणा १. अणंतराहाराए णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी० पुच्छा ? एवं जहेव अणंतरोववन्नएहिं उद्देसो तहेव निरवसेसं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। ॥छव्वीसइमे सए : छट्ठो उद्देसओ समत्तो॥ २६-६॥ [१ प्र.] भगवन् ! क्या अनन्तराहारक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भंगात्मक प्रश्न। [१ प्र.] गौतम ! जिस प्रकार (पहले) अनन्तरोपपन्नक (द्वितीय) उद्देशक कहा गया है, उसी प्रकार यह समग्र अनन्तराहारक उद्देशक भी कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–अनन्तराहारक का स्वरूप आहारकत्व के प्रथम समयवर्ती को अनन्तराहारक कहते हैं। ॥छव्वीसवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त। ***
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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