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पंचमो उद्देसओ : पांचवाँ उद्देशक
परम्परावगाढ़ नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध परम्परावगाढ़ चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध - प्ररूपणा १. परंमपरोगाढए णं भंते! नेरतिए पावं कम्मं किं बंधी० ? जहेव परंपरोववन्नएहिं उद्देसो सो चेव निरवसेसो भाणियव्वो । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ।
॥ छ्व्वीसइमे सए : पंचमो उद्देसओ समत्तो ॥ २६-५॥
[१ प्र.] भगवन् ! क्या परम्परावगाढ़ नैरयिक ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भंगीय प्रश्न । [१ प्र.] गौतम ! जिस प्रकार परम्परोपपन्नक के विषय में उद्देशक कहा है, उसी प्रकार परम्परावगाढ़ (नैरयिकादि) के विषय में यह समग्र उद्देशक अन्यूनाधिक रूप से कहना चाहिए ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ छ्व्वीसवाँ शतक : पंचम उद्देशक समाप्त ॥
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