SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 683
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५२] पंचमो उद्देसओ : पांचवाँ उद्देशक परम्परावगाढ़ नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध परम्परावगाढ़ चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध - प्ररूपणा १. परंमपरोगाढए णं भंते! नेरतिए पावं कम्मं किं बंधी० ? जहेव परंपरोववन्नएहिं उद्देसो सो चेव निरवसेसो भाणियव्वो । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० । ॥ छ्व्वीसइमे सए : पंचमो उद्देसओ समत्तो ॥ २६-५॥ [१ प्र.] भगवन् ! क्या परम्परावगाढ़ नैरयिक ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भंगीय प्रश्न । [१ प्र.] गौतम ! जिस प्रकार परम्परोपपन्नक के विषय में उद्देशक कहा है, उसी प्रकार परम्परावगाढ़ (नैरयिकादि) के विषय में यह समग्र उद्देशक अन्यूनाधिक रूप से कहना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ छ्व्वीसवाँ शतक : पंचम उद्देशक समाप्त ॥ ***
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy