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________________ ५५६ ] नवमो उद्देसओ : नौवाँ उद्देशक परम्परपर्याप्तक नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध परम्परपर्याप्तक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध-प्ररूपणा १. परंपरपज्जत्तए णं भंते! नेरतिए पावं कम्मं किं बंधी ० पुच्छा ? गोयमा ! एवं जहेव परंपरोववन्नएहिं उद्देसो तहेव निरवसेसो भाणियव्वो । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० । ॥ छ्व्वीसइमे सए : नवमो उद्देसओ समत्तो ॥ २६-९ ॥ [१ प्र.] भगवन् ! क्या परम्परपर्याप्तक नैरयिक ने पापकर्म का बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । [१ प्र.] गौतम ! जिस प्रकार परम्परोपपन्नक (नैरयिकादि के पापकर्मबन्ध-सम्बन्धी) उद्देशक कहा हैं, उसी प्रकार परम्परपर्याप्तक नैरयिकादि के पापकर्मादि-सम्बन्धी उद्देशक समग्ररूप से कहना चाहिए। - 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ छ्व्वीसवाँ शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त ॥ ***
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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