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नवमो उद्देसओ : नौवाँ उद्देशक
परम्परपर्याप्तक नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध
परम्परपर्याप्तक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध-प्ररूपणा १. परंपरपज्जत्तए णं भंते! नेरतिए पावं कम्मं किं बंधी ० पुच्छा ? गोयमा ! एवं जहेव परंपरोववन्नएहिं उद्देसो तहेव निरवसेसो भाणियव्वो । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ।
॥ छ्व्वीसइमे सए : नवमो उद्देसओ समत्तो ॥ २६-९ ॥
[१ प्र.] भगवन् ! क्या परम्परपर्याप्तक नैरयिक ने पापकर्म का बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । [१ प्र.] गौतम ! जिस प्रकार परम्परोपपन्नक (नैरयिकादि के पापकर्मबन्ध-सम्बन्धी) उद्देशक कहा हैं, उसी प्रकार परम्परपर्याप्तक नैरयिकादि के पापकर्मादि-सम्बन्धी उद्देशक समग्ररूप से कहना चाहिए। - 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते
हैं ।
॥ छ्व्वीसवाँ शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त ॥
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